अचानक उमस को चीरती हुई हू-हू करके हवा चलने लगी-देखते-देखते शुस्ता का स्थिर जल-तल अप्सरा के केश-पाश की भाँति कुंचित हो उठा एवं सन्ध्याछायाच्छन्न समस्त वनभूमि क्षणभर में एक साथ मर्मरव्वनि करके मानो दुःस्वप्न से जाग उठी। चाहे स्वप्न कहो या सत्य कहो, ढाई सौ वर्ष के अतीत क्षेत्र से प्रतिफलित होकर मेरे सामने जो एक अदृश्य मरीचिका अवतीर्ण हुई थी वह पलभर में अन्तर्धान हो गई। जो मायामयी मुझे फलांगती हुई देहहीन द्रुत-पदों से शब्दहीन उच्चकलहास्य से दौड़कर शुस्ता के जल में जाकर कूद पड़ी थीं, अपने सिक्त अंचला से बूंदें टपकात टपकात फिर मेरी बगल से होकर नहीं निकलीं। जिस प्रकार वायु गन्ध को उड़ाकर ले जाती है, उसी प्रकार वे वसन्त के एक निःश्वास में उड़कर चली गई। (अतिथि-रवींद्रनाथ टैगोर)
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