नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 18 सितंबर 2023

अतिथि-रवींद्रनाथ टैगोर

 अचानक उमस को चीरती हुई हू-हू करके हवा चलने लगी-देखते-देखते शुस्ता का स्थिर जल-तल अप्सरा के केश-पाश की भाँति कुंचित हो उठा एवं सन्ध्याछायाच्छन्न समस्त वनभूमि क्षणभर में एक साथ मर्मरव्वनि करके मानो दुःस्वप्न से जाग उठी। चाहे स्वप्न कहो या सत्य कहो, ढाई सौ वर्ष के अतीत क्षेत्र से प्रतिफलित होकर मेरे सामने जो एक अदृश्य मरीचिका अवतीर्ण हुई थी वह पलभर में अन्तर्धान हो गई। जो मायामयी मुझे फलांगती हुई देहहीन द्रुत-पदों से शब्दहीन उच्चकलहास्य से दौड़कर शुस्ता के जल में जाकर कूद पड़ी थीं, अपने सिक्त अंचला से बूंदें टपकात टपकात फिर मेरी बगल से होकर नहीं निकलीं। जिस प्रकार वायु गन्ध को उड़ाकर ले जाती है, उसी प्रकार वे वसन्त के एक निःश्वास में उड़कर चली गई। (अतिथि-रवींद्रनाथ टैगोर) 




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