सड़क पर से नर-नारियों का अविरत प्रवाह आ रहा था और जा रहा था। उसका न ओर था न छोर। यह प्रवाह कहां जा रहा था और कहां से आ रहा था, कौन बता सकता है ? सब उम्र के संब तरह के लोग उसमें थे। मानो मनुष्य के नमूनों का बाजार, सजकर, सामने से इठलाता निकला चला जा रहा हो।
अधिकार-गर्व में तने अंग्रेज उसमें थे, और चिथड़ों से सजे, घोड़ों की बाग थामें वे पहाड़ी उसमें थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचल कर शून्य बना लिया है, और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सीख गये हैं।
भागते-खेलते, हंसते शरारत करते, लाल-लाल अंग्रेज बच्चे थे और पीली-पीली आंखें फोड़े, पिता की ऊंगली पकड़कर चलते हुए अपने हिन्दुस्तानी नौनिहाल भी थे।
अंग्रेज पिता थे जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हंस रहे थे और खेल रहे थे। उधर भारतीय पितृदेव भी थे, जो बुजुर्गो को अपने चारों तरफ लपेटे धन-सम्पन्नता के लक्षणों का प्रदर्शन करते हुए चल रहे थे।
अंग्रेज रमणियां थीं, जो धीरे नहीं चलती थीं, तेज चलती थीं। उन्हें न चलने में थकावट आती थी, न हंसने में लाज आती थी। कसरत के नाम पर भी बैठ सकती थीं, और घोड़े के साथ ही साथ जरा जी होते ही, किसी हिन्दुस्तानी पर भी कोड़े फटकार सकती थीं। वह दो-दो-तीन-तीन, चार-चार की टोलियों में निश्शक, निरापद, इस प्रवाह में मानो अपने स्थान को जानती हुई, सड़क पर से चली जा रही थीं।
उधर हमारी भारत की कुललक्ष्मियां, सड़क के बिल्कुल किनारे-किनारे दामन बचाती और सम्हलाती हुई, साड़ी की कई तहों में सिमट सिमटकर, लोक-लाज, स्त्रीत्व और भारतीय गरिमा के आदर्श को अपने परिवेष्टनों में छिपाकर, सहमी सहमी धरती में आंखें गाड़े कदम-कदम बढ़ रही थीं। इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमूना था। अपने कालेपन को खुरच-खुरच कर बहा देने की इच्छा करने वाले अंग्रेजीदा पुरुषोत्तम भी थे, जो नेटिव को देखकर मुंह फेर लेते थे और अंग्रेज को देखकर आंखे बिछा देते थे, और दुम हिलाने लगते थे। वैसे वह अकड़ कर चलते थे-मानो भारत भूमि को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचलकर चलने का उन्हें अधिकार मिला है। (जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ- डॉ. निर्मला जैन)
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