नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 18 मार्च 2024

जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ- डॉ. निर्मला जैन

 सड़क पर से नर-नारियों का अविरत प्रवाह आ रहा था और जा रहा था। उसका न ओर था न छोर। यह प्रवाह कहां जा रहा था और कहां से आ रहा था, कौन बता सकता है ? सब उम्र के संब तरह के लोग उसमें थे। मानो मनुष्य के नमूनों का बाजार, सजकर, सामने से इठलाता निकला चला जा रहा हो। 

अधिकार-गर्व में तने अंग्रेज उसमें थे, और चिथड़ों से सजे, घोड़ों की बाग थामें वे पहाड़ी उसमें थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचल कर शून्य बना लिया है, और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सीख गये हैं। 

भागते-खेलते, हंसते शरारत करते, लाल-लाल अंग्रेज बच्चे थे और पीली-पीली आंखें फोड़े, पिता की ऊंगली पकड़कर चलते हुए अपने हिन्दुस्तानी नौनिहाल भी थे। 

अंग्रेज पिता थे जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हंस रहे थे और खेल रहे थे। उधर भारतीय पितृदेव भी थे, जो बुजुर्गो को अपने चारों तरफ लपेटे धन-सम्पन्नता के लक्षणों का प्रदर्शन करते हुए चल रहे थे। 

अंग्रेज रमणियां थीं, जो धीरे नहीं चलती थीं, तेज चलती थीं। उन्हें न चलने में थकावट आती थी, न हंसने में लाज आती थी। कसरत के नाम पर भी बैठ सकती थीं, और घोड़े के साथ ही साथ जरा जी होते ही, किसी हिन्दुस्तानी पर भी कोड़े फटकार सकती थीं। वह दो-दो-तीन-तीन, चार-चार की टोलियों में निश्शक, निरापद, इस प्रवाह में मानो अपने स्थान को जानती हुई, सड़क पर से चली जा रही थीं। 

उधर हमारी भारत की कुललक्ष्मियां, सड़क के बिल्कुल किनारे-किनारे दामन बचाती और सम्हलाती हुई, साड़ी की कई तहों में सिमट सिमटकर, लोक-लाज, स्त्रीत्व और भारतीय गरिमा के आदर्श को अपने परिवेष्टनों में छिपाकर, सहमी सहमी धरती में आंखें गाड़े कदम-कदम बढ़ रही थीं। इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमूना था। अपने कालेपन को खुरच-खुरच कर बहा देने की इच्छा करने वाले अंग्रेजीदा पुरुषोत्तम भी थे, जो नेटिव को देखकर मुंह फेर लेते थे और अंग्रेज को देखकर आंखे बिछा देते थे, और दुम हिलाने लगते थे। वैसे वह अकड़ कर चलते थे-मानो भारत भूमि को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचलकर चलने का उन्हें अधिकार मिला है। (जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ- डॉ. निर्मला जैन)




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शनिवार, 9 मार्च 2024

रेत जैसे रंग वाली लड़की

रेत जैसे रंग वाली लड़की

रेत के घरौंदे बनाया करती थी

ताम्बई रंग वाला लड़का

उन घरौंदों को लात मारकर

अक्सर तोड़ जाया करता था

बहुत मजा आता था उसे

रेत जैसे रंग वाली लड़की के

रेत वाले घरौंदों को तोड़कर

बहुत खुश होता था

ताम्बई रंग वाला लड़का

रेत जैसे रंग वाली लकड़ी के

चेहरे पर उदासी देखकर

मगर रेत जैसे रंग वाली लड़की

ताम्बई रंग वाले लड़के से

नाराज न होकर

फिर-फिर रेत के घरौंदे

बनाती थी इस उम्मीद में

कि कभी तो ताम्बई रंग वाला लड़का

उसके बनाये घरौंदे की

करेगा तारीफ़ और कहेगा

कि ओ रेत जैसे रंग वाली लड़की

तुम रेत के घरौंदे कितना सुन्दर बनाती हो...

             कृष्णधर शर्मा  9.3.24 

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शनिवार, 2 मार्च 2024

सौदामिनी-विभूतिभूषण मुखोपाध्याय

 वास्तव में, दो दिन में ही, जैसा धैर्य-च्युत हो बैठा हूं-इससे भली-भांति समझा जा सकता है कि यह नौकरी रहेगी नहीं। एक तो इस अभिजात वातावरण में अपने को एडजस्ट नहीं कर पा रहा। दूसरे एक रहस्य भी है....इस कोठी में कहीं कोई एक गृहस्वामिनी भी है किन्तु उनके अस्तित्व का पक्की तरह निदर्शन नहीं मिल रहा। देखता हूं, मीरा ही सर्वमयी है। शायद मेरी नौकरी से उसका कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं फिर भी कुछ परेशानी का अनुभव कर रहा हूं। सबसे अधिक असह्य हो उठा है पत्थर जैसा खाली वक्त ! 

तरु प्रातः कहां जाती है ? ट्यूशन पढ़कर आती है ? दोपहर को कहां जाती है? स्कूल ?.... फिर मुझे इतना वेतन देकर क्यों रखा गया है ? काम के अभाव में कोठी के साथ किसी सम्पर्क सूत्र का अनुभव भी नहीं कर पा रहा हूं। अच्छी चाल है बड़े लोगों की ! आदमी रख लिया, पर उसका काम तक निश्चित नहीं कर देते। इसके बिल्कुल विपरीत पहले वाली सब जगहों पर गार्जियन-उपगार्जियनों का दल भागकर आता कि एक क्षण भी खाली तो नहीं बैठा हूं कहीं ! पर इससे तो सौ गुणा वही अच्छा था। 

रहस्य उस दिन कुछ खुला। 

चिट्ठी पोस्ट करके मन-ही-मन सोचता-विचारता बाग में एक लोहे के बेंच पर जा बैठा। बाहर से बाग जितना अधिक कृत्रिम और भद्दा लग रहा था अब उतना नहीं लग रहा। बल्कि कहूं कि अच्छा ही लग रहा है। साफ-सुथरे कटे-छटे बालों वाले व्यक्ति के शरीर पर जैसे ढीला-ढाला कोट अच्छा नहीं दीखता, बल्कि सुडौल कुरता सुन्दर लगता है। इस कोठी के ख्याल से यह बाग भी कुछ वैसा ही है। 

मेरे बेंच के पास गुलाब की एक क्यारी है। हाथ के पास वाले पौधे में पांच-छह गुलाब खिले हुए हैं। इन दिनों सोचते-सोचते कोठी के अन्दर की हवा मानो भाराक्रांत हो उठी थी....यहां अच्छा लगा। मैंने गन्ध लुब्ध हो एक फूल खींचकर अलग पकड़ लिया- पत्ते घास पर झर पड़े। मैं शंकित हो उठा। एक बार देखा-निःशब्द वहां से चले जाने की सोच ही रहा था कि बरामदे से बेयरा ने आवाज दी, "मास्टर साहब मेम साहब आपको बुला रही हैं।" 

(सौदामिनी-विभूतिभूषण मुखोपाध्याय)




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