वास्तव में, दो दिन में ही, जैसा धैर्य-च्युत हो बैठा हूं-इससे भली-भांति समझा जा सकता है कि यह नौकरी रहेगी नहीं। एक तो इस अभिजात वातावरण में अपने को एडजस्ट नहीं कर पा रहा। दूसरे एक रहस्य भी है....इस कोठी में कहीं कोई एक गृहस्वामिनी भी है किन्तु उनके अस्तित्व का पक्की तरह निदर्शन नहीं मिल रहा। देखता हूं, मीरा ही सर्वमयी है। शायद मेरी नौकरी से उसका कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं फिर भी कुछ परेशानी का अनुभव कर रहा हूं। सबसे अधिक असह्य हो उठा है पत्थर जैसा खाली वक्त !
तरु प्रातः कहां जाती है ? ट्यूशन पढ़कर आती है ? दोपहर को कहां जाती है? स्कूल ?.... फिर मुझे इतना वेतन देकर क्यों रखा गया है ? काम के अभाव में कोठी के साथ किसी सम्पर्क सूत्र का अनुभव भी नहीं कर पा रहा हूं। अच्छी चाल है बड़े लोगों की ! आदमी रख लिया, पर उसका काम तक निश्चित नहीं कर देते। इसके बिल्कुल विपरीत पहले वाली सब जगहों पर गार्जियन-उपगार्जियनों का दल भागकर आता कि एक क्षण भी खाली तो नहीं बैठा हूं कहीं ! पर इससे तो सौ गुणा वही अच्छा था।
रहस्य उस दिन कुछ खुला।
चिट्ठी पोस्ट करके मन-ही-मन सोचता-विचारता बाग में एक लोहे के बेंच पर जा बैठा। बाहर से बाग जितना अधिक कृत्रिम और भद्दा लग रहा था अब उतना नहीं लग रहा। बल्कि कहूं कि अच्छा ही लग रहा है। साफ-सुथरे कटे-छटे बालों वाले व्यक्ति के शरीर पर जैसे ढीला-ढाला कोट अच्छा नहीं दीखता, बल्कि सुडौल कुरता सुन्दर लगता है। इस कोठी के ख्याल से यह बाग भी कुछ वैसा ही है।
मेरे बेंच के पास गुलाब की एक क्यारी है। हाथ के पास वाले पौधे में पांच-छह गुलाब खिले हुए हैं। इन दिनों सोचते-सोचते कोठी के अन्दर की हवा मानो भाराक्रांत हो उठी थी....यहां अच्छा लगा। मैंने गन्ध लुब्ध हो एक फूल खींचकर अलग पकड़ लिया- पत्ते घास पर झर पड़े। मैं शंकित हो उठा। एक बार देखा-निःशब्द वहां से चले जाने की सोच ही रहा था कि बरामदे से बेयरा ने आवाज दी, "मास्टर साहब मेम साहब आपको बुला रही हैं।"
(सौदामिनी-विभूतिभूषण मुखोपाध्याय)
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