नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

गुरुवार, 16 मई 2013

कौन आया रास्ते आइना खाना हो गए


कौन आया रास्ते आइना खाना हो गए
रात रोशन हो गयी दिन भी सुहाने हो गए

ये भी मुमकिन है कि उसने मुझको पहचाना ना हो
अब उसे देखे हुए कितने जमाने हो गए

जाओ उन कमरों के आईने उठाकर फ़ेंक दो
वे अगर ये कह रहे हों हम पुराने हो गए

मेरी पलकों पर ये आंसू प्यार की तौहीन हैं
उसकी आँखों से गिरे मोती के दाने हो गए
                                                            बशीर बद्र  

वो फ़िराक और विसाल कहाँ?


वो फ़िराक और विसाल कहाँ?
वो शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहाँ?

थी वो एक शख्स के तसव्वुर से
अब वो रानाई _ए-ख़याल कहाँ?

ऐसा आसां नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ?

फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ?
                                          मिर्ज़ा ग़ालिब 

एक परवाज़ दिखाई दी है


एक परवाज़ दिखाई दी है,
 तेरी आवाज़ सुनाई दी है

जिसकी आँखों में कटी थीं सदियाँ
उसने सदियों की जुदाई दी है

सिर्फ एक सफहा पलट कर उसने
सारी बातों की सफाई दी है

फिर वहीँ लौट के जाना होगा,
यार ने ऐसी रिहाई दी है

आग ने क्या-क्या जलाया है शब भर,
कितनी ख़ुश रंग दिखाई दी है.
                                           गुलज़ार 

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीँ जाता


बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीँ जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता

सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती है निगाहेँ
क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यूँ नहीं जाता

वो एक ही चेहरा तो नहीँ सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता

मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते है जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता

वो नाम जो बरसों से ना चेहरा ना बदन है
वो ख्वाब नगर है तो बिखर क्यूँ नहीं जाता
                                                           निदा फाज़ली 

सोमवार, 13 मई 2013

फिर से अपने देश को हमको

आंधी हो या तूफ़ान हो भ्रष्ट हो या बेईमान हो चाहे वह रिश्वतखोर हो या फिर कोई चोर हो हमें बचाना है इनसे अपने प्यारे भारत को करनी है अब हमें सफाई मार भगाना है इनको बहुत हो गया जंगलराज अब तो लाना है स्वराज राजे-महराजों को भगाओ अब तो करेगी जनता राज बहुत चल चुके पीछे-पीछे अब तो चलेंगे हम आगे आओ मिलकर करें उपाय भारत से बेकारी भागे अब तो हमको भारत का खोया सम्मान लौटना है फिर से अपने देश को हमको नंबर वन पर लाना है. (कृष्ण धर शर्मा, २०१३)