शाम
के धुंधलके में
जबकि
चिडियां वापस जा रही थीं अपने घोंसलों में बच्चों के पास
गायें भी रंभाती हुई भागती सी
अपने छौनों के लिए
आलस भरी अंगड़ाई लेकर
जागने की तैयारी में थे उल्लू भी
पेड़ की शाखों पर उल्टे लटके हुए
दिनभर खेतों में काम करके
किसान भी लौट रहे थे घरों को
अपने हल और बैलों के साथ
कुछ बैलगाड़ियाँ भी लौट रही थीं हाट-बाजार से
और इन सबका इंतजार करती हुई
कुछ जोड़ी आँखें भी झांक रही सी
घरों की चारदीवारी से
अँधेरा गहराने लगा था अब तक
पहुँच चुके थे तब तक लोग अपने घरों में
चिडियां अपने घोसलों में
गायें अपने छौनों के पास
और पहुँच चुका था पागल भी
चाय-पकौड़ी वाले होटल के
बाहर बिछे तख़्त पर
दिनभर यहां-वहां भटकने के बाद
(कृष्ण धर शर्मा, २०१६)
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