नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

अभिशप्त कथा- मनु शर्मा

 "आवेग का ज्वर जब उतरता है तब पश्चाताप के पंक के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह जाता है। और ऐसे ही क्षणों में मनुष्य आत्म-विश्लेषण करता है। वह स्वयं को उधेड़ता है, परत-दर-परत खोलता चलता है। ये पल होते हैं अंतर्मंथन के। यह समय होता है अपनी अस्मिता से साक्षात्कार का  इस समय उसकी मानसिकता सुरत्व को असुरत्व से अलग करके देखती है, सत्य को तर्क से हटाकर परखती है, प्रकाश को अंधकार से छानकर पीती है। संध्या होते-होते आचार्य इसी मानसिकता में आ गए थे।" (अभिशप्त कथा- मनु शर्मा)



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सोमवार, 16 अप्रैल 2018

"नमो अन्धकारं" - दूधनाथ सिंह

 "उन्हें तो अपने पति-परमेश्वर से मतलब था। वे उन संस्कारों से आई थीं ,जहाँ औरतें यह मानकर चलती हैं कि मर्द तो कुत्ता होता ही है। भड़िहाई तो उसका गुण-धर्म है। सो, कुंतीजी के लिए इसका कोई अर्थ नहीं था कि गुरु कितनी हाँडियों में मुँह डालते हैं।" "नमो अन्धकारं" - दूधनाथ सिंह



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शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

"मैं भीष्म बोल रहा हूँ" - भगवतीशरण मिश्र

 "उसके समक्ष मृत्यु का सहर्ष वरण करने जो खड़े थे उनमें अधिकांश उसके अपने ही थे। रक्त-सम्बन्धी। रिश्ते में पिता थे, पितृव्य थे, पितामह थे, श्याला थे श्वसुर थे। इनके अतिरिक्त गुरुजन थे- द्रोण थे, कृपाचार्य थे। गुरु-पुत्र अश्वत्थामा थे। इन सभी का वह वध करे? क्यों? राज-सुख के लिए? रक्त-सिक्त इस सुख से तो भिक्षान्न पर पलना अधिक उचित था। और योद्धाओं के हत् होने से कितनी नारियाँ माथे का सिंदूर गँवा देंगी! वैधव्य-वरण को विवश होंगी। इससे परिवार-समाज में कदाचार बढ़ेगा। कुल धर्म नष्ट हो जायेगा। वर्ण-संकर उत्पन्न होंगे। पितरों को उनका तीलोदक, पींड स्वीकार्य नहीं होगा। ऐसे में पितरों का पतन होगा, उन्हें अधोगति प्राप्त होगी। उसका तर्क अकाट्य एवं मर्मभेदी था" "मैं भीष्म बोल रहा हूँ" (भगवतीशरण मिश्र)



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