एक
दिन कुछ लोग किसी घटना पर
भीड़
बनकर बेहद आक्रोशित हुए
आक्रोश
ने उन्माद की शक्ल ली
उन्माद
ने भीड़ पर अपना असर किया
वह
कुसूरवार था या बेकसूर!
उन्माद
ने भीड़ को सोचने ही न दिया
भीड़
ने उसे पीट-पीटकर मार डाला
वह
भी पिटता ही रहा मरने तक
यही
सोचकर, कि इतने सारे लोग
मिलकर
पीट रहे हैं मुझे
तो
जरूर, मैं ही गलत रहा होऊंगा!
यही
मानकर वह ख़ुशी-ख़ुशी मर गया
कुछ
दिन तो बड़ी ही शांति से बीते
मगर
भीड़ के मुंह तो खून लग चुका था
भीड़
तो आदमखोर हो चुकी थी
कई
दिनों तक नहीं मिला कोई शिकार
तो
बेचैन भीड़ ने अपने ही बीच से
चुन
लिया एक कमजोर सा शिकार
अपराध
और वजह भी बना ली गई उसे
पीट-पीटकर
मार डालने की
चूँकि
भीड़ काफी सात्विक
और
अमनपसंद थी
जो
मारना पसंद नहीं करती थी
बेवजह,
बिना अपराध किसी को भी
इसके
बाद तो भीड़ का यह
रोज
का काम हो गया
अब
तो भीड़ ने अपना-पराया
भी
देखना बंद कर दिया
जो
भी दिखता जरा सा कमजोर
शिकार
हो जाता वही उन्मादी भीड़ का....
(कृष्ण धर शर्मा, 24.06.2018)
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