नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

भीड़


एक दिन कुछ लोग किसी घटना पर
भीड़ बनकर बेहद आक्रोशित हुए
आक्रोश ने उन्माद की शक्ल ली
उन्माद ने भीड़ पर अपना असर किया
वह कुसूरवार था या बेकसूर!
उन्माद ने भीड़ को सोचने ही न दिया
भीड़ ने उसे पीट-पीटकर मार डाला
वह भी पिटता ही रहा मरने तक
यही सोचकर, कि इतने सारे लोग
मिलकर पीट रहे हैं मुझे
तो जरूर, मैं ही गलत रहा होऊंगा!
यही मानकर वह ख़ुशी-ख़ुशी मर गया
कुछ दिन तो बड़ी ही शांति से बीते
मगर भीड़ के मुंह तो खून लग चुका था
भीड़ तो आदमखोर हो चुकी थी
कई दिनों तक नहीं मिला कोई शिकार
तो बेचैन भीड़ ने अपने ही बीच से
चुन लिया एक कमजोर सा शिकार
अपराध और वजह भी बना ली गई उसे
पीट-पीटकर मार डालने की
चूँकि भीड़ काफी सात्विक
और अमनपसंद थी
जो मारना पसंद नहीं करती थी
बेवजह, बिना अपराध किसी को भी
इसके बाद तो भीड़ का यह
रोज का काम हो गया
अब तो भीड़ ने अपना-पराया
भी देखना बंद कर दिया
जो भी दिखता जरा सा कमजोर
शिकार हो जाता वही उन्मादी भीड़ का....
           (कृष्ण धर शर्मा, 24.06.2018)

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