नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

विद्रोहियों के बीच में


कंपनी के काम से मैं पहले भी बस्तर आ चुका था लेकिन इस बार का अनुभव काफी कड़वा रहा. हालाँकि इससे पहले भी मैंने असंतोष की चिंगारियां देखी थी पर इस बार वह चिंगारियां लपटों का रूप धारण कर चुकी थीं.
लौह अयस्क कि खुदाई हो या ढुलाई, किसी भी तरह के कार्य के लिए मजदूरों को उनका उचित? पारिश्रमिक दिया जाता रहा था फिर भी मजदूर वहीँ के वहीँ रह गए और उनकी झोपड़ी भी झोपड़ी ही रह गई लेकिन देखते ही देखते ठेकेदार और उद्योगपति कब लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति बनते चले गए यह खेल अब मजदूरों की समझ में आने लगा था. आज जो मजदूर थे वही पहले इन जमीनों के मालिक थे जिनसे आज बहुमूल्य खनिजों का दोहन हो रहा है. सरकारी नुमाइन्दों  और ठेकेदारों, बिचौलियों ने  इन जमीन मालिकों को ऐसे हसीन सपने दिखाए कि अधिकतर भू-स्वामी तो इनके झांसे में आकर अपनी जमीनें इन्हें दे बैठे और जिन्होंने अपनी जमीनें देने में आनाकानी की उन्हें कानूनी तर्कों के हथियार से चुप करा दिया गया और जिन्होंने इस सबका विरोध करने की कोशिश की उन्हें विद्रोही बताकर परेशान किया जाने लगा और मारा जाने लगा. जिन भू-स्वामियों से उनकी जमीनें ली गई थीं उनके मुआवजों का भी कोई हिसाब नहीं हुआ और सारा पैसा बिचौलिए खा गए.
भू-स्वामियों से मुफ्त में या कौड़ियों के भाव ली गई बेशकीमती जमीनों के बन्दर-बाँट का खेल शुरू हुआ जिसमे प्रभावशाली और सत्ता तक पहुँच रखने वाले लोगों ने बाजी मारी और फिर जब खनिजों के उत्खनन का कार्य शुरू हुआ तो वादे के मुताबिक स्थानीय निवासियों को सबसे पहले रोजगार देना था मगर उच्च पदों के लिए बाहरी लोगों को चुना गया और स्थानीय लोगों को कौड़ियों के भाव दिहाड़ी मजदूरी पर रखा गया जो कि बाद में बड़ी-बड़ी मशीनों के आने से उन मजदूरों की जरूरत भी कम होती गई. कहने को तो सरकार ने स्कूल, अस्पताल भी खुलवा दिए लेकिन इस बारे में कभी नहीं सोचा गया कि स्कूल में पढने तो वही आ पायेगा जिसके घर में कोई परेशानी न हो लेकिन जब घर में पर्याप्त मात्रा में खाने-पहनने कि व्यवस्था नहीं होगी तो बच्चे क्या भूखे पेट और नंगे बदन स्कूल जायेंगे. सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज की व्यवस्था की गई थी लेकिन बीमार पड़ने पर दूर-दराज के गांवों से अस्पताल तक पहुँच पाना काफी मुश्किल होता है और अस्पताल तक पहुँच भी गए तो कभी डाक्टर नहीं मिलेंगे तो कभी दवाइयां नहीं मिलेंगी और इन गरीबों के पास इतना पैसा और साधन नहीं होता था कि शहर जाकर निजी अस्पतालों में अपना इलाज करवा सकें और बाजार से दवाइयां खरीद सकें. सड़कें भी आम जनता के लिए नहीं बल्कि उन्हीं जगहों पर बनाई गई थीं जहाँ से खनिजों की ढुलाई, सरकारी अफसरों और ठेकेदारों-उद्योगपतियों को आने-जाने में आसानी हो सके.
इन विद्रोहियों का यह तर्क भी पूरी तरह से ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि जिस रत्नगर्भा धरती पर वह जमाने से रहते आये हैं जिस पर उनका प्राकृतिक रूप से अधिकार रहा है आज वह अचानक सरकार या उद्योगपतियों की कैसे हो गई. सरकारी तर्क भी हो सकता है कि देश या राज्यों की प्राकृतिक सम्पदा और संसाधनों पर कानूनन सरकार का हक़ है क्योंकि इस सबके बदले में वह आम जनता के जीवन को सरल और सुखद बनाने के लिए कार्य करती है और सुविधाएँ प्रदान करती है. लेकिन जहाँ की सम्पदा और संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा हो और जनता के अधिकारों और मूलभूत सुविधाओं का कहीं अता-पता ही न हो तो वहां पर जनाक्रोश तो उपजेगा ही न! पिछड़े और अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित लोगों में विरोध की आवाज तो उठेगी ही और इनकी समस्याओं को न समझकर अगर इस विरोध को दबाने के लिए बलप्रयोग या दमनकारी नीतियों का सहारा लिया जाएगा तो इसके परिणाम भयावह तो होंगे ही जो कि अब सामने भी आ रहे हैं.
कितनी हास्यास्पद बात है कि स्थानीय निवासी अपनी ही जमीनों से बहुमूल्य खनिज संपदा निकालने के लिए मजदूरों के रूप में अपना सहयोग दे रहे हैं जिससे कि सरकार, ठेकेदार व उद्योगपति मालामाल हो रहे हैं उचित तो यह होता कि इन भू-स्वामियों को इनकी जमीनों से खनिज निकलने के बदले में रॉयल्टी दी जाती मगर रॉयल्टी और मुआवजा तो बहुत दूर की बात थी इनको तो इतनी मजदूरी भी नहीं दी जाती थी कि पेटभर खाने के बाद पहनने के लिए कपड़े और रहने के लिए ठीक-ठाक घर भी बना सकें या अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भी भेज सकें. और अगर इन्हीं बातों का कोई विरोध करता है तो उसे विद्रोही (राष्ट्रद्रोही) करार दिया जाता है, यातनाएं दी जाती हैं, बिना मुकदमा चलाये कई वर्षों तक कारागार में रखा जाता है.
इन तरीकों से तो यह विद्रोह दबने से रहा. उचित यही होगा कि इन वंचितों, शोषितों के सामाजिक, आर्थिक व मानसिक विकास के लिए ईमानदारी से प्रयास किये जाएँ. इनकी शिक्षा व चिकित्सा की उचित व्यस्था की जाये क्योंकि अनपढ़ रहकर मजदूरी के आलावा और कुछ न कर पाना इनकी विवशता है. शासकों और नीति-निर्माताओं को गंभीर एवं संवेदनशील होकर इनकी मूलभूत आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निर्णय लेने होंगे और नीतियां बनानी होगीं तभी इनकी समस्याओं का वास्तविक समाधान हो सकता है, केवल कागजी खानापूर्ति, झूठी बैठकें करने और दुनिया को दिखाने के लिए कोरी बयानबाजी से कुछ होने वाला नहीं है. इस पर भी कड़ाई से नजर रखनी होगी कि जो कुछ योजनायें इनके विकास के लिए बनाई जा रही हैं या लागू की जा रही हैं क्या उनका लाभ वास्तविक लोगों तक पहुँच पा रहा है या अन्य सरकारी योजनाओं की तरह उसकी भी दुर्गति हो रही है.
लौह अयस्क की ढुलाई व्यवस्था को सुचारू रूप से संपन्न करवाने के लिए कंपनी की तरफ से दो प्रतिनिधियों को भेजा गया था जो कि बस्तर पहुंचकर जनाक्रोश का शिकार बने. हालाँकि मजदूरों (विद्रोहियों) का गुस्सा या विरोध नाजायज नहीं कहा जा सकता क्योंकि हम लोग जिस तरह से सारा कार्य मशीनों से सम्पादित करवा रहे थे जैसे खदानों में खनन का कार्य मशीनों से हो रहा था और खनिजों को ट्रकों में लोड करने के लिए भी मशीनें ही काम कर रही थीं हाइड्रोलिक सिस्टम से लैस ट्रकों से अनलोडिंग भी स्वचलित ही हो रही थी और रेलवे साइडिंग पर खनिज गिरने के बाद मालगाड़ियों में लोडिंग भी मशीनें ही कर रही थीं इस तरह से मजदूरों के पास कोई काम नहीं रह गया था. जमीनें तो उनसे पहले ही छीनी जा चुकी थीं और यहाँ पर भी उनका काम मशीनों ने छीन लिया था इस तरह से उनके भूखों मरने कि नौबत आ चुकी थी. मुख्य सड़क से रेलवे साइडिंग तक जाने वाली कच्ची सड़क जो कि ओवरलोड ट्रकों के चलने से पूरी तरह से ख़राब हो चुकी थी उसे मजदूरों ने ही श्रमदान करके फिर से बनाया था और मजदूरों ने यह श्रमदान इस उद्देश्य से किया था इन रास्तों से जो माल ढुलाई होगी उसे मालगाड़ियों में लोड करने या खाली करने में उन्हीं की जरूरत पड़ेगी और इस तरह से उन्हें रोजगार मिलता रहेगा मगर जब लोडिंग-अनलोडिंग सहित सारा काम मशीनों से होने लगा और मजदूरों को काम ना मिलने से उनके लिए भूखों मरने की स्थिति बनने लगी तो मजदूरों का धैर्य जवाब देने लगा. उन्हें यह असहनीय लगने लगा कि उनके ही बनाये रास्ते से सारा काम हो रहा है और उनको ही खाने के लाले पड़े हैं तो उन्होंने विरोध करना शुरू कर दिया. मजदूरों के विरोध का एक और कारण था मालगाड़ियों की लोडिंग में तो सारा काम मशीनों से हो जाता था मगर अनलोडिंग में उनकी थोड़ी-बहुत जरूरत पड़ती थी और वह इसमें भी खुश थे मगर हम लोगों ने करीब हफ्ते भर के लिए रेलवे से पूरी साइडिंग सिर्फ लोडिंग के लिए बुक करवा ली थी इसलिए अनलोडिंग न होने से मजदूरों को हफ्ते भर कोई काम न मिला, उनका राशन-पानी ख़त्म हो गया और भूखों मरने की स्थिति आ गई थी और हम लोग फिर से हफ्ते भर के लिए साइडिंग बुक करने के लिए पहुँच गए और जब मजदूरों को यह बात पता चली कि अगले एक हफ्ते भी उन्हें कुछ काम नहीं मिलने वाला है तो वह भड़क उठे और हमें ऐसा करने के लिए मना करने लगे तब स्टेशन मास्टर ने उन्हें कहा कि आप लोग रेलवे का काम मत रोकिये यह गैरकानूनी है और आप लोग काम रोकेंगे तो आपको सजा भी हो सकती है. भूखे-प्यासे मजदूर यह सुनकर और भड़क उठे और उन्होंने इस सबके लिए हम लोगों को ही कसूरवार माना और हमें बंधक बनाकर पास के जंगल में ले गए जहाँ पर करीब दो सौ मजदूर (विद्रोही) पहले से ही मौजूद थे. हमें चारों तरफ से करीब बीस लोगों ने घेर रखा था और जब वहां पर हमारा परिचय दिया गया तो भीड़ में से कई लोग गालियां देते हुए टंगिया, फरसे लेकर हमें मारने के लिए आगे बढ़े जिन्हें कुछ और लोगों ने समझाते हुए रोक लिया और कहा कि पहले जनअदालत में इनके ऊपर मुकदमा चलेगा फिर इनको सजा दी जायेगी, तब जाकर वह लोग शांत हुए और अनुशासनपूर्वक अपनी जगह जाकर बैठ गए. जनअदालत शुरू हुई और उन लोगों के एक लीडर (नेता) ने हमारे ऊपर लगाये गए आरोप जनता को सुनाये गए कि “ये लोग विदेशी कंपनियों और सरकार के एजेंट हैं और हमारी धरती से बहुमूल्य खनिज निकालकर विदेशों में बेचते हैं और भारी मुनाफा कमाते हैं”. “ऐसे ही लोगों की वजह से हमारी जमीनें हमारा घर हमसे छीन लिया गया और हमें मालिक से मजदूर बना दिया गया और अब ये लोग यहाँ मशीनें लेकर आये हैं जिस वजह से हम पूरी तरह से बेरोजगार हो चुके हैं, अगर अब भी इनका विरोध नहीं किया गया या इन्हें यहाँ से भगाया नहीं गया तो हमें और हमारी सभ्यता को मिटने से कोई नहीं रोक पायेगा. आखिर हमारी गलती क्या है? हम तो कितने ही बरसों से बिना किसी को परेशान किये इन जंगलों में अपना जीवन बिता रहे थे. इन जैसे लोगों ने किसी न किसी बहाने से पहले तो यहाँ पर घुसपैठ की और अब तो यहाँ के मालिक ही बन बैठे हैं. इन लोगों की साजिश यही है कि हमें किसी भी तरह से यहाँ से बाहर भगाया जाये जिससे कि यह लोग यहाँ की बहुमूल्य खनिज संपदा का मनमाने तरीके से दोहन कर सकें”. “अब जनता को फैसला करना है कि इन्हें क्या सजा दी जाए?”.
वहां पर मौजूद सारी जनता ने एक सुर में कहा “इनकी सजा तो मौत ही है”. सामने की तरफ मौजूद कई लोगों ने आपस में बात की और आरोप सुनाने वाले लीडर ने ही जनअदालत का फैसला सुनाते हुए कहा कि “इन लोगों को मौत की सजा सुनाई जाती है और इन्हें यहीं पर सबके सामने गला रेत कर मारा जायेगा”. यह फैसला सुनकर हम लोगों के तो होश ही उड़ चुके थे, हमने पहले भी सुन रखा था कि कैसे एक सरकारी कर्मचारी को रेत-रेत कर मारा गया था. पहले तो उसके पैर की उँगलियों को रेत-रेत कर काटा गया था और एक-एक करके पैर से शुरू करते हुए सिर तक उसके बाईस टुकड़े किये गए थे. तभी बाहर की तरफ से एक आदमी दौड़ते हुए आया और उसने लीडर को रोकते हुए उसके कान में कुछ कहा. लीडर ने फिर से कहा कि ऊपर से आदेश आया है कि हमारे बड़े लीडर आने वाले हैं और इनकी सजा का फैसला वही करेंगे.
अब बड़े लीडर का इन्तजार होने लगा और करीब दो घंटे के बाद बड़े लीडर वहां पर पहुंचे जिनके साथ कुछ ठेकेदार भी थे हम लोग उन्हें पहचान गए और हमें आश्चर्य भी हुआ यह लोग आपस में मिले हुए हैं. बड़े लीडर को हमारे बारे में पूरी जानकारी दी गई और उन्हें बताया गया कि जन अदालत में उन्हें मौत की सजा सुनाई जा चुकी थी मगर आप लोगों के आने का सन्देश मिलते ही कार्रवाई रोक दी गई है अब आप लोग ही इनका फैसला करिए.
बड़े लीडर ने चारों तरफ निगाह घुमाते हुए हमसे पूछा कि “तुम लोगों पर जो आरोप लगाये गए हैं उसके बारे में तुम्हे कुछ सफाई देनी है क्या! 
हम लोगों ने कहा कि “हम तो कंपनी के नौकर हैं हमें यहाँ पर देखरेख के लिए भेजा गया है हम आप लोगों के खिलाफ भला क्या साजिश करेंगे! हमें तो कंपनी की तरफ से जो आदेश दिया जाता है हम लोग उसी का पालन करते हैं. हमारी आप लोगो से भला क्या दुश्मनी हो सकती है?".
बड़े लीडर ने कई लोगों और ठेकेदारों से बात करके हमसे कहा कि यह जो सड़क बनाई गई है हमारे लोगों ने मेहनत करके बनाई है और तुम लोगों को अगर यहाँ पर काम करना है तो हमसे मिलकर रहना होगा और हमारे तरीके से काम करना होगा. फिर हमारे पास एक लीडर आया और धीरे-धीरे अपनी शर्तें बताने लगा कि हमें हर महीने एक निश्चित रकम उन्हें देनी होगी और जो भी काम होंगे वह इन ठेकेदारों से करवाए जायेंगे जो हमारे साथ आये हैं. हमनें अपनी जान बचाने के लिए बिना कंपनी से पूछे उनकी सारी शर्तों को मान लिया. तब बड़े लीडर ने जनता से कहा कि इन लोगों ने अपनी गलती मान ली है और माफी भी मांग ली है इसलिए इन्हें माफ़ किया जाता है. बड़े लीडर का फैसला सुनकर कई लोग चिल्लाने लगे कि इन्हें माफ़ नहीं किया जा सकता अगर इन्हें जान से न भी मारा जाए तो कम से कम इनके एक-एक हाथ और पैर काट कर ही छोड़ा जाए. भीड़ की बातें सुनकर मैंने घबराहट में चिल्लाते हुए कहा कि नहीं, मारना है तो जान से मार दो मगर हाथ-पैर मत काटो.
बड़े लीडर ने सबको चुप कराते हुए कहा कि फैसला हो चुका है और इन्होने तो अपनी गलती मानकर माफ़ी भी मांग ली है इसलिए इनको छोड़ा जाता है.
बड़े लीडर ने कुछ लोगों से कहा कि इन्हें स्टेशन तक छोड़कर आओ और सारी बातें इन्हें दोबारा से समझा देना. कई लोग मिलकर हमारे साथ स्टेशन तक आये और हमें सारी शर्तें याद दिलाते हुए वापस लौट गए. हम लोग भी सुबह होटल से सिर्फ चाय पीकर निकले थे और शाम हो चली थी तो सबसे पहले हमने होटल पहुंचकर नहाया-धोया, खाना खाया और सारे घटनाक्रम की कड़ियाँ जोड़ने की कोशिश करते हुए सोचने लगे कि सही और गलत की परिभाषा क्या है! सोचते-सोचते ही नींद आ गई और सवाल का जवाब भी अधूरा ही रह गया.
                                         (कृष्णधर शर्मा- 2007)

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