दस दिन की गर्मियों की छुट्टियों में विनय नानी के गाँव, बुआ के गाँव और
ससुराल भी हो आया था बीवी-बच्चे वहीँ ससुराल में ही रुक गए थे. फिर भी दो दिन की
छुट्टियाँ और बच रही थी उसकी. अचानक ही
उसके मन में ख्याल आया कि क्यों न पास के ही गाँव चला जाए जहाँ पर उसके स्कूल के
दिनों के कुछ अच्छे दोस्तों का घर है. विनय घर में माँ को बताकर निकल पड़ा. रास्ते
में कई लोगों से दुआ-सलाम और हालचाल करते-पूछते 3 किलोमीटर दूर दोस्तों के गाँव
पहुंचा. इधर 7-8 सालों में गाँव काफी बदल चुका था. झुके हुए कच्चे मिटटी के खपरैल
वाले घरों की जगह अब पक्के मकान सीना ताने खड़े थे जिनकी छतों पर अलग-अलग निजी
कंपनियों की छतरियां लहलहा रही थीं. मकानों की सजावट बता रही थी कि लोगों में घर
सजाने की होड़ लगती होगी इस गाँव में. गाँव के कच्चे और उबड़-खाबड़ रास्ते अब पक्की
कांक्रीट की सड़कों में तब्दील हो चुके थे. चाहे गांववालों की जागरूकता का असर हो
या फिर शासन की ओर से ग्राम पंचायत में विकास के लिए आ रहे करोड़ों रुपयों का, जो
भी हो मगर इस बदले हुए रूप में अपने दोस्तों के घर पहचानना थोडा मुश्किल हो रहा था
विनय के लिए. सारी सुविधाएँ घरों के भीतर हो जाने से बाहर या नीम के पेड़ के नीचे
बने चबूतरों पर भी कोई नजर नहीं आ रहा था.
विनय ने असमंजस की स्थिति में एक घर की कुण्डी खड़काई जिसके बाद एक बूढ़े से
चेहरे ने दरवाजे के बाहर झांकते हुए पूछा
“कौन हो भाई! किससे मिलना है?”
विनय ने उस बूढ़े चेहरे को पहचान लिया था, उसने नमस्ते करते हुए कहा
“चाचाजी मैं आनंद का दोस्त हूँ, छुट्टियों में गाँव आया था तो सोचा कि मिलता
चलूँ”
बूढ़ी आँखों में जैसे चमक आ गयी हो.
“अन्दर आओ बेटा” कहकर उन्होंने पूरा दरवाजा खोल दिया. अन्दर पहुंचकर विनय ने
देखा कि घर में दैनिक जीवन को आसान बनाने वाली वस्तुएं मसलन कूलर, पंखा, टीवी,
फ्रिज और रसोई गैस इत्यादि लगभग सब कुछ उपलब्ध है. अब विनय को समझ आया कि घरों के
बाहर लोग क्यों नहीं दिख रहे थे.
“अरे सुनती हो आनंद की अम्मा! देखो आनंद का दोस्त आया है. कुछ नास्ता और चाय लेकर आना”.
“अरे नहीं चाचाजी मैं घर से नाश्ता करके निकला हूँ, आप परेशान मत होइए!”.
“ठीक है बेटा, हमें भी पता है घर से भूखे पेट नहीं निकले होगे मगर हमारा भी तो
कुछ अधिकार है कि नहीं!”
“अरे नहीं चाचाजी ऐसी बात नहीं है मैं तो बस ये सोचकर कह रहा था कि आप नाहक ही
परेशान होंगे”
आनंद नहीं दिख रहा है! कहीं बाहर रहता है क्या?”
“आनंद तो अब शहर में रहता है बेटा”.
“आनंद क्या काम करता है चाचाजी!”
“बेटा पहले तो वह नौकरी करने शहर गया जहाँ पर कुछ महीने काम करने के बाद उसे
फैक्ट्रियों में मजदूर सप्लाई करने का ठेका मिल गया. अब तो उसने वहीँ पर घर भी बना
लिया है”.
“शादी हो गई है क्या उसकी?”
“हाँ बेटा. पांच साल हुए वहीँ शहर की एक लड़की से शादी कर ली उसने. बाद में
हमें बताया कि उसने कोर्ट में शादी कर ली है मगर आप लोग चाहें तो गाँव आकर
रीति-रिवाज से शादी करने को तैयार हूँ”.
“फिर क्या हुआ चाचाजी!”
“लड़की हमसे नीची जाति की थी मगर अब तो ना करने का सवाल ही नहीं था बेटा, सो
बेइज्जती से और गाँव वालों की बातों से बचने के लिए हमने लड़की की जाति छुपाकर
दुबारा से विधि-विधान से आनंद की शादी की, क्योंकि गाँववालों को पता चलने से हमारा
यहाँ जीना मुश्किल हो जाता”.
तब तक आनंद की माँ बिस्कुट और नमकीन लेकर आ गईं. आनंद को देखकर वह भी खुश लग
रही थीं. आनंद ने उठकर उन्हें नमस्ते करते हुए पूछा
“कैसी हैं चाचीजी! तबियत वगैरह ठीक रहती है आपकी!”
“कैसी हैं चाचीजी! तबियत वगैरह ठीक रहती है आपकी!”
“मैं तो ठीक ही हूँ बेटा मगर तुम तो बहुत दिन बाद आये. कहाँ रहते हो! क्या काम
करते हो? शादी-ब्याह हो गया होगा न! कितने बच्चे हैं! तुम्हारा परिवार गाँव में ही
रहता है कि शहर में अपने साथ रखे हो!”
आनंद को इतने सारे सवालों के एकसाथ पूछे जाने का अंदाजा नहीं था इसलिए वह थोडा
हडबडा गया मगर फिर मुस्कुराते हुए बोला “हां चाचीजी, मेरी शादी हो गई है दो बेटे
हैं और मैं पूना में रहता हूँ. वहां पर एक कंप्यूटर कम्पनी में काम करता हूँ और
बच्चे वहीँ मेरे साथ ही रहते हैं. अभी छुट्टियों में घर आया हुआ था तो सोचा आनंद
से भी मिलता चलूँ”.
“आनंद के भी तो बच्चे होंगे!”
“हाँ बेटा उसके भी एक बेटा है. आनंद तो 2-3 महीने में मजदूरों को पहुँचाने और
लेजाने के लिए आता-जाता रहता है मगर उसकी बीवी थोड़ा ज्यादा ही पढ़ी-लिखी है तो उसको
यहाँ गाँव में रहना पसंद नहीं आता इसलिए वह यहाँ कम ही आती है, हाँ मगर हमारा बेटा
हमारा काफी ख्याल रखता है और किसी चीज कि कोई कमी नहीं होने देता”.
वह तो घर में उपलब्ध सुविधाएँ देखकर ही पता चल रहा था.
विनय ने घडी में समय देखते हुए कहा “अब मैं चलता हूँ चाचीजी, कुछ और लोगों से
मिलना है”
“रुको न बेटा! खाना खाकर जाना”
“अभी तो नाश्ता कर ही लिया हूँ, खाना फिर कभी खा लूँगा चाचीजी. अच्छा ये
महेंद्र और राकेश का कौन सा घर है?”.
“हमारे घर से चौथा घर राकेश का है जिसके बाहर पुराना ट्रैक्टर खड़ा है और उसके
आगे वाला घर महेंद्र का है. मगर बेटा दोनों ही शहर में किसी फैक्टरी में काम करते
हैं और साल में एक या दो बार होली-दिवाली
या किसी के शादी-ब्याह में घर आते हैं. उन्होंने भी अपने बीवी-बच्चे अपने साथ ही
शहर में रखे हैं. इस गाँव में तो अब हमारे जैसे बूढ़ा और बूढ़ी ही मिलेंगे”.
विनय को अचानक से झटका सा लगा. नानी के गाँव में, बुआ के गाँव में और उसके खुद
के गाँव में भी तो यही हाल है, जहाँ भी गया हूँ हर जगह बूढ़े ही तो मिले हैं.
कमाने-खाने के चक्कर में अधिकतर लड़के सपरिवार शहरों की तरफ कूच कर गए और अभी आगे
भविष्य में भी यही होता दिख रहा है क्योंकि शहरों में रहकर पढाई-लिखाई करने वाले
बच्चों को गांव में तो नौकरी मिलने से रही सो मजबूरी में उन्हें भी शहरों में ही
रहना होगा और धीरे-धीरे गाँव वापस लौटने कि संभावनाएं ख़त्म होती जायेंगी. बची-खुची
खेती और मकानों की चौकीदारी करते हुए गाँवों में अब सिर्फ बूढ़े ही मिलेंगे क्योंकि
सीमित कमाई, घटती जिम्मेदारी और ख़त्म होती नैतिकता के चलते बच्चों के लिए बूढ़ों को
शहर में अपने साथ रख पाना असंभव प्रतीत होता है.
विनय अनमना सा कुछ सोचते हुए वापस
अपने घर पहुंचा जहाँ पर माँ ने पूछा
“कहां-कहां घूमकर आये बेटा!”
“कहां-कहां घूमकर आये बेटा!”
“बूढ़ा गाँव”
“ये कौन सा गाँव है बेटा! पहले तो कभी नहीं सुना!”
अब विनय को माँ के इस सवाल का कुछ भी जवाब न सूझ रहा था......
(कृष्ण धर शर्मा -2015)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें