"तीन-चार दिन के भीतर ही मुसाहिबजू की गढ़ी के आस-पास सैनिकों के झुंड के झुंड एकत्र होने लगे। सबके पास बंदूक और ढाल-तलवार। मूँगिये कपड़े पहने और बुंदेलखंडी झब्बू जूते। न कोई नियम, न कोई संयम। कवायद -परेड बहुत थोड़े सिपाहियों को सिखाई गई थी; पर इनकी नकल अन्य सिपाही उत्साह और ध्यान के साथ कर रहे थे, जो हवलदार के परिश्रम की कमी की पूर्ति कर रही थी।" (मुसाहिबजू-रामगढ़ की रानी-वृंदावनलाल वर्मा)
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