नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 12 नवंबर 2018

वर्णाश्रम- रामधारी सिंह दिवाकर

 "इतना साहस भी नहीं हुआ कि कि बिल्कुल सामने खड़े अपने पुत्र के पास जाएँ, उसके आँसू पोंछ दें और कंधे पर हाथ रखकर कह सकें कि- हद हो गई अब। चलो, गाँव लौट चलें। गाँव में अपने घर की याद आते ही एक पूरी तसवीर उनकी आँखों में बनने लगी थी। फूस के दो छोटे-छोटे घर, झोंपड़े जैसे दालान, जो मरम्मत के बिना गिरने-गिरने को है। बीमारी से कराहती रहने वाली पंडिताइन, विवाह के योग्य ही रही दो पुत्रियाँ, वृत्तिहीनता और कभी-कभी भूखे सो जाने की दुर्निवार स्थितियाँ। और इन्हीं स्थितियों के समानांतर अभी इसी सप्ताह गुणानंद का भेजा मनीऑर्डर और आश्वस्त करता भविष्य..." (वर्णाश्रम- रामधारी सिंह दिवाकर)



#साहित्य_की_सोहबत

#पढ़ेंगे_तो_सीखेंगे

#हिंदीसाहित्य

#साहित्य

#कृष्णधरशर्मा

Samajkibaat

समाज की बात


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें