"इतना साहस भी नहीं हुआ कि कि बिल्कुल सामने खड़े अपने पुत्र के पास जाएँ, उसके आँसू पोंछ दें और कंधे पर हाथ रखकर कह सकें कि- हद हो गई अब। चलो, गाँव लौट चलें। गाँव में अपने घर की याद आते ही एक पूरी तसवीर उनकी आँखों में बनने लगी थी। फूस के दो छोटे-छोटे घर, झोंपड़े जैसे दालान, जो मरम्मत के बिना गिरने-गिरने को है। बीमारी से कराहती रहने वाली पंडिताइन, विवाह के योग्य ही रही दो पुत्रियाँ, वृत्तिहीनता और कभी-कभी भूखे सो जाने की दुर्निवार स्थितियाँ। और इन्हीं स्थितियों के समानांतर अभी इसी सप्ताह गुणानंद का भेजा मनीऑर्डर और आश्वस्त करता भविष्य..." (वर्णाश्रम- रामधारी सिंह दिवाकर)
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