"सविता देखने में जितनी सुंदर थी, उतनी की चतुर भी थी। सबसे बड़ी बात उसमें यह थी कि वह कॉलेज के डिबेटों में खूब हिस्सा लिया करती थी। जब वह बोलना शुरू करती, तो कोई कहता- इसका बाप भी ऐसी बातें नहीं सोच सकता! जरूर कोई उस्ताद है। इसके पीछे, जो प्रेम के कारण अपने आप को छिपा कर इसे आगे बढ़ा रहा है; लेकिन इन बातों से होता जाता कुछ नहीं। अगर मान लिया जाए कि वह रट कर हो आती थी, तो रटने की भी एक हद हुआ करती है। आज तक हमने नहीं देखा कि 'चंद्रकांता संतति' के चौबीसों हिस्से किसी की जबान पर रखे हों। वह बोलने में एक भी भूल नहीं करती।
'उसके ख्याल एकदम आजाद थे। विधवा विवाह, तलाक, सहशिक्षा, स्त्री का नौकरी करना, गोया जिंदगी के हर हर पहलू में नारी की जो बात है, वह सब सविता की ही थी। हर बात पर उसके अपने अलग विचार थे।
नए विचारों की वह लड़की शाम को जब लड़कों के साथ घूमने निकलती, पार्टियों में जाती, कविता लिखती। कविता का मजाक शायद आप लोगों को मालूम नहीं। कोई आपकी तरफ आंखें उठाकर देखता तक नहीं तो बस, कविता लिखिए!" (रांगेय राघव संकलित कहानियां-वीरेश कुमार)
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