गुजरात में वडोदरा से 30 किलोमीटर दूर डभोई तहसील के फरती कुई गांव में एक होटल के सीवर की सफाई के दौरान मैन होल में उतरे 7 लोगों की जहरीली गैस से दम घुटने के कारण मौत हो गई। मैन होल से सर्वप्रथम अंदर जाने वाले महेश पाटनवाडिया के बाहर न निकलने पर उनकी कुशलता जानने के लिए एक के बाद एक सात सहकर्मी मैन होल से अंदर प्रविष्ट हुए और 15 मिनट में सभी की मृत्यु हो गई। इनमें 4 सफाई कर्मचारी और 3 होटल कर्मी थे। यह भयंकर और हृदयविदारक घटना इस तरह की लगातार घट रही दुर्घटनाओं से जरा भी भिन्न नहीं थी। सफाई कर्मियों को बिना किसी सुरक्षा उपाय के यह कार्य करने के लिए विवश होना पड़ता था। स्थानीय प्रशासन को अनेक बार संभावित अनहोनी की आशंका से अवगत कराया गया था किंतु कोई कदम नहीं उठाया गया। अब दोषियों की गिरफ्तारी और मुआवजे की घोषणा जैसे रस्मी कदम उठाए जा रहे हैं। होटल मालिक पर जो धाराएं लगाई गई हैं वह उसके अपराध की तुलना में बहुत हल्की हैं।
यदि मीडिया मामले को निरन्तर उठाता रहा तो शायद इनमें कुछ इज़ाफ़ा भी हो जाएगा। किन्तु जैसा अब तक होता रहा है सीवर सफाई करने वाले कर्मचारियों को निर्ममतापूर्वक मौत के मुंह में धकेलने वाले धनकुबेर और उनके कारिंदे लंबी न्यायालयीन प्रक्रिया के बाद या तो बेगुनाह छूट जाएंगे या इन्हें नाम मात्र का दंड मिलेगा। गुजरात सरकार ने मृतकों की जान की कीमत 4 लाख रुपए आंकी है जैसा गुजरात के मुख्यमंत्री श्री विजय रुपाणी की एक घोषणा से पता चलता है। शायद गुजरात राज्य सामाजिक न्याय विभाग द्वारा 8.25 लाख प्रति परिवार मुआवजा और दिया जाएगा।
गुजरात सफाई कर्मचारी संघ की ओर से 2 लाख रुपए की मदद का आश्वासन दिया गया है। मृतक सफाई कर्मियों के शोक संतप्त, हतप्रभ और भयाक्रांत परिजनों को हमेशा की तरह यह समझाने की पुरजोर कोशिश की जा रही होगी कि जो मिल रहा है वह मृतकों की हैसियत से बहुत ज्यादा है। मनुष्य द्वारा हाथ से मैला सफाई का यह अमानवीय कारोबार इन सफाई कर्मियों और उनके परिवार के सदस्यों को अंदर से इतना कमजोर, हताश और पराजित बना देता है कि कोई आश्चर्य नहीं यदि इन मृतकों के परिजन भी मुआवजा मिलने को ही अपना परम सौभाग्य मान लें और दोषियों के साधन संपन्न सहयोगियों के समक्ष शरणागत हो जाएं। धीरे धीरे सब कुछ पुराने ढर्रे पर चल निकलेगा और इस तरह की घटनाओं की निर्लज्ज पुनरावृत्ति होती रहेगी। एनसीएसके के आंकड़े बताते हैं कि सीवर सफाई के दौरान हुई मृत्यु के आंकड़ों में गुजरात देश में तामिलनाडु के बाद दूसरे नंबर पर है। गुजरात प्रधानमंत्री का गृह राज्य है और विकास के बहुचर्चित गुजरात मॉडल की प्रयोग स्थली भी। प्रधानमंत्री का बहुप्रचारित स्वच्छता अभियान महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित बताया जाता है जो स्वयं इस अमानवीय प्रथा से असहमत और आहत रहे। किन्तु इसके बाद भी गुजरात का यह शर्मनाक रिकॉर्ड गहरी चिंता उत्पन्न करता है। यह दर्शाता है कि सरकार की प्राथमिकताओं में शायद ये सफाई कर्मी सम्मिलित नहीं हैं।
मैला सफाई के इस कार्य के विषय में आरक्षण पर कोई विवाद नहीं है। वाल्मीकि समुदाय के लोग इस कार्य के संपादन के लिए अभिशप्त हैं। उच्चतर वर्णों के लोग वाल्मीकि समुदाय के इस पेशे पर एकाधिकार को कभी चुनौती नहीं देते। आरक्षण का विमर्श इस पेशे से दूरी बना लेता है। चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान हर धर्म में मैला सफाई के लिए कुछ खास जातियां इस कार्य को करने के लिए चिह्नित की गई हैं जिन्हें नारकीय दशाओं में यह कार्य करना पड़ता है क्योंकि समाज उन्हें इस दलदल से निकलने नहीं देता। इस पेशे को छोड़ना भी आसान नहीं है। यहां तक कि जब वाल्मीकि समुदाय के लोग महानगरों की ओर पलायन करते हैं तब भी इन्हें अन्य कार्यों से दूर रखा जाता है और इन्हें मैला सफाई के कार्य से आमरण आबद्ध रखा जाता है। इस कार्य को इतना घृणित माना जाता है कि ऐसे अनेक श्रमिक अपने परिवार तक से यह तथ्य छिपा कर रखते हैं कि वे सीवर सफाई का कार्य करते हैं। ऐसे में कई बार सीवर सफाई के दौरान इनकी मौत की खबर इनके परिजनों को भी हतप्रभ और चकित छोड़ जाती है।
इन मैला सफाई करने वाले श्रमिकों के प्रति प्रशासन तंत्र की उदासीनता चिंतित करने वाली है। सरकार ने मैला सफाई करने वाले श्रमिकों की संख्या और उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति के संबंध में कोई भी सर्वेक्षण नहीं कराया है। लोकसभा में 4 अगस्त 2015 को एक अतारांकित प्रश्न के उत्तर में सरकार द्वारा यह जानकारी दी गई कि 2011 की जनगणना के आंकड़े यह बताते हैं कि देश के ग्रामीण इलाकों में 180657 परिवार मैला सफाई का कार्य कर रहे थे। इनमें से सर्वाधिक 63713 परिवार महाराष्ट्र में थे। इसके बाद मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, त्रिपुरा तथा कर्नाटक का नंबर आता है। यह संख्या इन परिवारों द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में हाथ से मैला सफाई के 794000 मामले सामने आए हैं। सीवर लाइन सफाई के दौरान होने वाली मौतों के विषय में राज्य सरकारें केंद्र को कोई सूचना नहीं देतीं। 2017 में 6 राज्यों ने केवल 268 मौतों की जानकारी केंद्र के साथ साझा की। सरकारी सर्वे के अनुसार तो 13 राज्यों में केवल 13657 सफाई कर्मी हैं। द गार्डियन की 19 सितंबर 2018 की एक रिपोर्ट यह बताती है कि राज्य सरकारें हाथों से मैला सफाई करने वाले श्रमिकों के अस्तित्व से ही इनकार करती हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार जब राज्य सरकारों से हाथों से मैला सफाई करने और ढोने वाले सफाई कर्मियों की संख्या की जानकारी मांगी गई तो तत्कालीन छत्तीसगढ़ और गुजरात सरकार ने क्रमश: 3 और 2 सफाई कर्मियों की संख्या बताई जो अविश्वसनीय और हास्यास्पद थी।
नैशनल कमीशन फॉर सफाई कर्मचारीज ने जब यह बताया कि सन 2017 से हर पांचवें दिन कोई न कोई अभागा सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मौत का शिकार बन जाता है तो हम सब चौंक उठे थे। लेकिन इस खुलासे से भी आश्चर्यजनक बात यह थी कि यह इस तरह की मृत्यु के संबंध में पहले आधिकारिक आंकड़े थे। एनसीएसके के अध्यक्ष मनहर वालजी भाई झाला कहते हैं कि यह आंकड़े अपूर्ण हैं क्योंकि अधिकांश राज्यों में इस तरह की मृत्यु रिपोर्ट ही नहीं होती। इन आंकड़ों को हिंदी और अंग्रेजी के समाचार पत्रों में छपी खबरों तथा 29 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 13 द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर तैयार किया गया है। इन आंकड़ों में हाथ से मैला उठाने वाले वाल्मीकि समुदाय के स्त्री पुरुषों की विभिन्न रोगों के कारण हुई मृत्यु के आंकड़े सम्मिलित नहीं हैं। असुरक्षित ढंग से मैला और गंदगी उठाते उठाते इन्हें कितने ही संक्रामक रोग हो जाते हैं और इनकी औसत आयु चिंताजनक रूप से कम हो जाती है।
ऐसा नहीं है कि इस संबंध में कानूनों की कोई कमी है। 1993 में 6 राज्यों ने केंद्र सरकार से मैला ढोने की प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए कानून का निर्माण करने का अनुरोध किया। तब द एम्प्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट 1993 नरसिम्हा राव सरकार द्वारा पारित किया गया। इस एक्ट के बनने के बाद से 1800 सफाई कर्मियों की सीवर सफाई के दौरान जहरीली गैसों के कारण हुई मौत के मामले मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और सफाई कर्मचारी आंदोलन के समन्वयक श्री बेजवाड़ा विल्सन और उनके साथियों के पास सूचीबद्ध हैं। श्री विल्सन के अनुसार यह संख्या केवल उन मामलों की है जिनके विषय में दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं।
वास्तविक संख्या तो इससे कई गुना अधिक है क्योंकि इस तरह की अधिकांश मौतों के मामले दबा दिए जाते हैं। मृतक के परिजन अशिक्षा और निर्धनता के कारण न्याय के लिए संघर्ष करने की स्थिति में नहीं होते। मृत्यु के लिए जिम्मेदार ठेकेदार और अधिकारी अपने रसूख के बल पर मामले को रफा दफा कर देते हैं। यह मौतें प्राय: सेप्टिक टैंक के भीतर मौजूद मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड आदि जहरीली गैसों के कारण होती हैं। डॉ आशीष मित्तल (जो जाने माने कामगार स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं तथा इस विषय होल टू हेल तथा डाउन द ड्रेन जैसी चर्चित पुस्तकों के लेखक हैं) बताते हैं कि सीवर सफाई से जुड़े अस्सी प्रतिशत सफाई कर्मी रिटायरमेंट की आयु तक जीवित नहीं रह पाते और श्वसन तंत्र के गंभीर रोगों तथा अन्य संक्रमणों के कारण इनकी अकाल मृत्यु हो जाती है। नियमानुसार पहले तो किसी व्यक्ति का सीवर सफाई के लिए मैनहोल में उतरना ही प्रतिबंधित है। किंतु यदि किसी आपात स्थिति में किसी व्यक्ति को सीवर में प्रवेश करना आवश्यक हो जाता है तो लगभग 25 प्रकार के सुरक्षा प्रबंधों की एक चेक लिस्ट है जिसका पालन सुनिश्चित करना होता है।
सर्वप्रथम तो यह जांच करनी होती है कि अंदर जहरीली गैसों का जमावड़ा तो नहीं है। एक विशेषज्ञ इंजीनियर की उपस्थिति अनिवार्य होती है। एम्बुलेंस की मौजूदगी और डॉक्टर की उपलब्धता आवश्यक होती है। सीवेज टैंक में उतरने वाले श्रमिक को गैस मास्क, हेलमेट, गम बूट, ग्लव्स, सेफ्टी बेल्ट आदि से सुसज्जित पोशाक उपलब्ध कराई जानी होती है। तदुपरांत मौके पर उपस्थित किसी जिम्मेदार अधिकारी द्वारा यह प्रमाणित करने पर कि सभी सुरक्षा नियमों का शतप्रतिशत पालन कर लिया गया है श्रमिक सीवर में उतर सकता है। तमाम कानूनी प्रावधानों के बाद भी सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतें थमने का नाम नहीं ले रही। सितंबर 2013 में सरकार ने इस संबंध में नया कानून बनाया। दिसंबर 2013 में सरकार द्वारा प्रोहिबिशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट एज मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड देयर रिहैबिलिटेशन रूल्स 2013 को लागू किया गया। इन्हें एम एस रूल्स के नाम से जाना जाता है।
सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने 2014 में निर्णय दिया- जहां तक सीवर सफाई के दौरान मृत्यु का संबंध है आपात स्थितियों में भी बिना सुरक्षा उपकरणों के सीवर लाइन्स में प्रवेश अपराध की श्रेणी में आएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि मृत्यु के ऐसे प्रत्येक मामले में 10 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि भारतीय रेल के यात्री डिब्बों के शौचालय हाथ से मैला सफाई का सबसे बड़ा कारण हैं, सर्वोच्च न्यायालय ने रेल विभाग को निर्देश दिया कि रेल पटरियों पर से मैला उठाने की अमानवीय स्थिति का अंत करने के लिए वह एक समयबद्ध कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करे। रेल मंत्रालय ने सन 2022 तक सारे रेल कोचों में बायो टॉयलेट लगाने का आश्वासन दिया।
यह जानना अत्यंत दु:खद है कि इतने स्पष्ट कानूनी प्रावधानों के बावजूद सीवर लाइन की सफाई के दौरान हुई मौतों के लिए दोषी व्यक्तियों पर एफआईआर दर्ज होने का इक्का दुक्का उदाहरण भी कठिनाई से उपलब्ध है। इन दोषियों को दंड मिलने की बात तो वर्तमान भ्रष्ट और असंवेदनशील तंत्र में असंभव जान पड़ती है। प्राय: होता यह है कि सफाई कार्य करा रहे ठेकेदार बिना किसी सुरक्षा उपकरण के 200-250 रुपए की दिहाड़ी पर कार्य कर रहे इन मजदूरों को रस्से के सहारे मैनहोल से नीचे उतार देते हैं। जहरीली गैसों की जांच के लिए इनके पास माचिस की तीली जलाकर देखना और जीवित कॉकरोच डालकर परीक्षण जैसे आदिम तरीके ही होते हैं। इन सीवर लाइन्स में संचित जहरीली गैसों के प्रभाव से यह मजदूर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं या गंभीर अवस्था में बाहर निकाले जाते हैं।
चूंकि बाहर एम्बुलेंस, डॉक्टर या अन्य कोई आपात चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध नहीं होती इसलिए इनकी मृत्यु अवश्यम्भावी होती है। इसके बाद शुरू होता है मामले को रफा दफा करने का खेल। पुलिस, अधिकारी और ठेकेदार का गठजोड़ मृत्यु के कारण को बदलने का कार्य करता है। एक नाम मात्र की राशि मृतक के परिजनों को ठेकेदार द्वारा दे दी जाती है। यद्यपि ये सरकारी कार्य कर रहे होते हैं लेकिन सरकारें इन्हें अपना कर्मचारी मानने से इनकार कर देती हैं। इन्हें मुआवजा देने से वंचित कर दिया जाता है।
सफाई कर्मचारी आंदोलन ने इस चौंकाने वाले तथ्य की ओर ध्यानाकर्षण किया है कि मैनुअल सफाई व्यवस्था को समाप्त करने के लिए वर्ष 2014-15 में 570 करोड़ का बजट था जो 2017-18 में सिर्फ 5 करोड़ रह गया। जबकि स्वच्छ भारत अभियान का बजट 2014-15 में 4541 करोड़ था, जो 2017-18 में बढ़कर 16248 करोड़ हो गया है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत बनाए जा रहे करोड़ों शौचालयों के लिए सेफ्टी टैंक भी बनाए जा रहे हैं। सरकार द्वारा सन 2019 तक 21 करोड़ शौचालय निर्माण का लक्ष्य है। किन्तु सरकार ने सीवेज सिस्टम के सुधार के लिए कोई खास प्रयत्न नहीं किए हैं। स्वच्छ भारत अभियान शुरू होने के पूर्व ही शहरी इलाकों में एक तिहाई शौचालय सीवर लाइन्स से जुड़े नहीं थे। सरकारी दावे यह बताते हैं कि 2017 के अंत तक ग्रामीण इलाकों में 6 करोड़ नए शौचालय बन चुके थे। इन परिस्थितियों में इनकी मैनुअल सफाई की घटनाएं भी बढ़ेंगी। सीवर लाइन की सफाई के दौरान होने वाली दुर्घटनाएं अब तक महानगरों तक ही सीमित थीं इनका
विस्तार अब छोटे कस्बों और ग्रामीण इलाकों में होगा।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने कुछ दिल दहला देने वाले दृश्यों को उत्पन्न किया है। जेसीबी मशीन और हाइड्रोलिक कटर के उपयोग से मैन होल को बड़ा कर इन अभागे सफाई कर्मचारियों के सीवर की गंदगी में गहरे डूब चुके शवों को निकाला गया। एक छवि वह भी थी जब प्रधानमंत्री जी कुंभ के अवसर पर शानदार कार्य करने वाले स्वच्छता कर्मियों के चरण पखार रहे थे। न चाहते हुए भी इन दोनों छवियों की तुलना तो होगी ही। सरकार स्टार्टअप्स को बढ़ावा देने के लिए अपनी प्रतिबद्धताओं को बार बार दुहराती रही है। केरल के चार युवा इंजीनियरों के एक समूह द्वारा निर्मित स्टार्टअप फर्म जेनोरोबोटीक्स द्वारा विकसित रोबोट, बैंडीकूट का इस्तेमाल सीवर की सफाई के लिए करने के लिए किया जा सकता है। इन युवा इंजीनियरों का यह सपना है कि वे मैनहोल को रोबोहोल में बदल देंगे।
19 नवंबर 2018 को वर्ल्ड टॉयलेट डे के अवसर पर सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक ने भी एक स्वचलित मशीन के विषय में जानकारी दी थी जो मैनुअल स्कैवेनजिंग की समाप्ति कर सकती है। क्या सरकार इन मशीनों के निर्माण और जरूरतमंद लोगों तक इनकी पहुंच को सुनिश्चित करेगी? सरकार का विश्वास यदि जनता को छवियों के माध्यम से संदेश देने में है तब भी उसके लिए बहुत कुछ करणीय है। इन स्वच्छता सेनानियों की शहादत को सलाम करने के लिए इनके अंतिम संस्कार के समय जिले के डीएम, जनप्रतिनिधि और राज्य सरकार के मंत्री उपस्थित रह सकते हैं। अधिकतम संभावित मुआवजे की रकम अंतिम संस्कार के पूर्व ही परिजनों को दी जा सकती है और परिवार के किसी सदस्य को नौकरी का नियुक्ति पत्र भी प्रदान किया जा सकता है। फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन कर दोषियों को न्यूनतम समय में सजा दिलाई जा सकती है। जहां भी ऐसी दु:खद घटना होती है वहां के प्रशासनिक अधिकारियों पर दंडात्मक कार्रवाई की परिपाटी आरंभ की जा सकती है। शायद सुंदर, सकारात्मक और प्रेरक छवियों की चाह में ही सरकार भारतीय समाज की इस भयंकर कुरीति के विरुद्ध कोई कदम उठा ले।
यदि मीडिया मामले को निरन्तर उठाता रहा तो शायद इनमें कुछ इज़ाफ़ा भी हो जाएगा। किन्तु जैसा अब तक होता रहा है सीवर सफाई करने वाले कर्मचारियों को निर्ममतापूर्वक मौत के मुंह में धकेलने वाले धनकुबेर और उनके कारिंदे लंबी न्यायालयीन प्रक्रिया के बाद या तो बेगुनाह छूट जाएंगे या इन्हें नाम मात्र का दंड मिलेगा। गुजरात सरकार ने मृतकों की जान की कीमत 4 लाख रुपए आंकी है जैसा गुजरात के मुख्यमंत्री श्री विजय रुपाणी की एक घोषणा से पता चलता है। शायद गुजरात राज्य सामाजिक न्याय विभाग द्वारा 8.25 लाख प्रति परिवार मुआवजा और दिया जाएगा।
गुजरात सफाई कर्मचारी संघ की ओर से 2 लाख रुपए की मदद का आश्वासन दिया गया है। मृतक सफाई कर्मियों के शोक संतप्त, हतप्रभ और भयाक्रांत परिजनों को हमेशा की तरह यह समझाने की पुरजोर कोशिश की जा रही होगी कि जो मिल रहा है वह मृतकों की हैसियत से बहुत ज्यादा है। मनुष्य द्वारा हाथ से मैला सफाई का यह अमानवीय कारोबार इन सफाई कर्मियों और उनके परिवार के सदस्यों को अंदर से इतना कमजोर, हताश और पराजित बना देता है कि कोई आश्चर्य नहीं यदि इन मृतकों के परिजन भी मुआवजा मिलने को ही अपना परम सौभाग्य मान लें और दोषियों के साधन संपन्न सहयोगियों के समक्ष शरणागत हो जाएं। धीरे धीरे सब कुछ पुराने ढर्रे पर चल निकलेगा और इस तरह की घटनाओं की निर्लज्ज पुनरावृत्ति होती रहेगी। एनसीएसके के आंकड़े बताते हैं कि सीवर सफाई के दौरान हुई मृत्यु के आंकड़ों में गुजरात देश में तामिलनाडु के बाद दूसरे नंबर पर है। गुजरात प्रधानमंत्री का गृह राज्य है और विकास के बहुचर्चित गुजरात मॉडल की प्रयोग स्थली भी। प्रधानमंत्री का बहुप्रचारित स्वच्छता अभियान महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित बताया जाता है जो स्वयं इस अमानवीय प्रथा से असहमत और आहत रहे। किन्तु इसके बाद भी गुजरात का यह शर्मनाक रिकॉर्ड गहरी चिंता उत्पन्न करता है। यह दर्शाता है कि सरकार की प्राथमिकताओं में शायद ये सफाई कर्मी सम्मिलित नहीं हैं।
मैला सफाई के इस कार्य के विषय में आरक्षण पर कोई विवाद नहीं है। वाल्मीकि समुदाय के लोग इस कार्य के संपादन के लिए अभिशप्त हैं। उच्चतर वर्णों के लोग वाल्मीकि समुदाय के इस पेशे पर एकाधिकार को कभी चुनौती नहीं देते। आरक्षण का विमर्श इस पेशे से दूरी बना लेता है। चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान हर धर्म में मैला सफाई के लिए कुछ खास जातियां इस कार्य को करने के लिए चिह्नित की गई हैं जिन्हें नारकीय दशाओं में यह कार्य करना पड़ता है क्योंकि समाज उन्हें इस दलदल से निकलने नहीं देता। इस पेशे को छोड़ना भी आसान नहीं है। यहां तक कि जब वाल्मीकि समुदाय के लोग महानगरों की ओर पलायन करते हैं तब भी इन्हें अन्य कार्यों से दूर रखा जाता है और इन्हें मैला सफाई के कार्य से आमरण आबद्ध रखा जाता है। इस कार्य को इतना घृणित माना जाता है कि ऐसे अनेक श्रमिक अपने परिवार तक से यह तथ्य छिपा कर रखते हैं कि वे सीवर सफाई का कार्य करते हैं। ऐसे में कई बार सीवर सफाई के दौरान इनकी मौत की खबर इनके परिजनों को भी हतप्रभ और चकित छोड़ जाती है।
इन मैला सफाई करने वाले श्रमिकों के प्रति प्रशासन तंत्र की उदासीनता चिंतित करने वाली है। सरकार ने मैला सफाई करने वाले श्रमिकों की संख्या और उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति के संबंध में कोई भी सर्वेक्षण नहीं कराया है। लोकसभा में 4 अगस्त 2015 को एक अतारांकित प्रश्न के उत्तर में सरकार द्वारा यह जानकारी दी गई कि 2011 की जनगणना के आंकड़े यह बताते हैं कि देश के ग्रामीण इलाकों में 180657 परिवार मैला सफाई का कार्य कर रहे थे। इनमें से सर्वाधिक 63713 परिवार महाराष्ट्र में थे। इसके बाद मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, त्रिपुरा तथा कर्नाटक का नंबर आता है। यह संख्या इन परिवारों द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में हाथ से मैला सफाई के 794000 मामले सामने आए हैं। सीवर लाइन सफाई के दौरान होने वाली मौतों के विषय में राज्य सरकारें केंद्र को कोई सूचना नहीं देतीं। 2017 में 6 राज्यों ने केवल 268 मौतों की जानकारी केंद्र के साथ साझा की। सरकारी सर्वे के अनुसार तो 13 राज्यों में केवल 13657 सफाई कर्मी हैं। द गार्डियन की 19 सितंबर 2018 की एक रिपोर्ट यह बताती है कि राज्य सरकारें हाथों से मैला सफाई करने वाले श्रमिकों के अस्तित्व से ही इनकार करती हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार जब राज्य सरकारों से हाथों से मैला सफाई करने और ढोने वाले सफाई कर्मियों की संख्या की जानकारी मांगी गई तो तत्कालीन छत्तीसगढ़ और गुजरात सरकार ने क्रमश: 3 और 2 सफाई कर्मियों की संख्या बताई जो अविश्वसनीय और हास्यास्पद थी।
नैशनल कमीशन फॉर सफाई कर्मचारीज ने जब यह बताया कि सन 2017 से हर पांचवें दिन कोई न कोई अभागा सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मौत का शिकार बन जाता है तो हम सब चौंक उठे थे। लेकिन इस खुलासे से भी आश्चर्यजनक बात यह थी कि यह इस तरह की मृत्यु के संबंध में पहले आधिकारिक आंकड़े थे। एनसीएसके के अध्यक्ष मनहर वालजी भाई झाला कहते हैं कि यह आंकड़े अपूर्ण हैं क्योंकि अधिकांश राज्यों में इस तरह की मृत्यु रिपोर्ट ही नहीं होती। इन आंकड़ों को हिंदी और अंग्रेजी के समाचार पत्रों में छपी खबरों तथा 29 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 13 द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर तैयार किया गया है। इन आंकड़ों में हाथ से मैला उठाने वाले वाल्मीकि समुदाय के स्त्री पुरुषों की विभिन्न रोगों के कारण हुई मृत्यु के आंकड़े सम्मिलित नहीं हैं। असुरक्षित ढंग से मैला और गंदगी उठाते उठाते इन्हें कितने ही संक्रामक रोग हो जाते हैं और इनकी औसत आयु चिंताजनक रूप से कम हो जाती है।
ऐसा नहीं है कि इस संबंध में कानूनों की कोई कमी है। 1993 में 6 राज्यों ने केंद्र सरकार से मैला ढोने की प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए कानून का निर्माण करने का अनुरोध किया। तब द एम्प्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट 1993 नरसिम्हा राव सरकार द्वारा पारित किया गया। इस एक्ट के बनने के बाद से 1800 सफाई कर्मियों की सीवर सफाई के दौरान जहरीली गैसों के कारण हुई मौत के मामले मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और सफाई कर्मचारी आंदोलन के समन्वयक श्री बेजवाड़ा विल्सन और उनके साथियों के पास सूचीबद्ध हैं। श्री विल्सन के अनुसार यह संख्या केवल उन मामलों की है जिनके विषय में दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं।
वास्तविक संख्या तो इससे कई गुना अधिक है क्योंकि इस तरह की अधिकांश मौतों के मामले दबा दिए जाते हैं। मृतक के परिजन अशिक्षा और निर्धनता के कारण न्याय के लिए संघर्ष करने की स्थिति में नहीं होते। मृत्यु के लिए जिम्मेदार ठेकेदार और अधिकारी अपने रसूख के बल पर मामले को रफा दफा कर देते हैं। यह मौतें प्राय: सेप्टिक टैंक के भीतर मौजूद मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड आदि जहरीली गैसों के कारण होती हैं। डॉ आशीष मित्तल (जो जाने माने कामगार स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं तथा इस विषय होल टू हेल तथा डाउन द ड्रेन जैसी चर्चित पुस्तकों के लेखक हैं) बताते हैं कि सीवर सफाई से जुड़े अस्सी प्रतिशत सफाई कर्मी रिटायरमेंट की आयु तक जीवित नहीं रह पाते और श्वसन तंत्र के गंभीर रोगों तथा अन्य संक्रमणों के कारण इनकी अकाल मृत्यु हो जाती है। नियमानुसार पहले तो किसी व्यक्ति का सीवर सफाई के लिए मैनहोल में उतरना ही प्रतिबंधित है। किंतु यदि किसी आपात स्थिति में किसी व्यक्ति को सीवर में प्रवेश करना आवश्यक हो जाता है तो लगभग 25 प्रकार के सुरक्षा प्रबंधों की एक चेक लिस्ट है जिसका पालन सुनिश्चित करना होता है।
सर्वप्रथम तो यह जांच करनी होती है कि अंदर जहरीली गैसों का जमावड़ा तो नहीं है। एक विशेषज्ञ इंजीनियर की उपस्थिति अनिवार्य होती है। एम्बुलेंस की मौजूदगी और डॉक्टर की उपलब्धता आवश्यक होती है। सीवेज टैंक में उतरने वाले श्रमिक को गैस मास्क, हेलमेट, गम बूट, ग्लव्स, सेफ्टी बेल्ट आदि से सुसज्जित पोशाक उपलब्ध कराई जानी होती है। तदुपरांत मौके पर उपस्थित किसी जिम्मेदार अधिकारी द्वारा यह प्रमाणित करने पर कि सभी सुरक्षा नियमों का शतप्रतिशत पालन कर लिया गया है श्रमिक सीवर में उतर सकता है। तमाम कानूनी प्रावधानों के बाद भी सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतें थमने का नाम नहीं ले रही। सितंबर 2013 में सरकार ने इस संबंध में नया कानून बनाया। दिसंबर 2013 में सरकार द्वारा प्रोहिबिशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट एज मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड देयर रिहैबिलिटेशन रूल्स 2013 को लागू किया गया। इन्हें एम एस रूल्स के नाम से जाना जाता है।
सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने 2014 में निर्णय दिया- जहां तक सीवर सफाई के दौरान मृत्यु का संबंध है आपात स्थितियों में भी बिना सुरक्षा उपकरणों के सीवर लाइन्स में प्रवेश अपराध की श्रेणी में आएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि मृत्यु के ऐसे प्रत्येक मामले में 10 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि भारतीय रेल के यात्री डिब्बों के शौचालय हाथ से मैला सफाई का सबसे बड़ा कारण हैं, सर्वोच्च न्यायालय ने रेल विभाग को निर्देश दिया कि रेल पटरियों पर से मैला उठाने की अमानवीय स्थिति का अंत करने के लिए वह एक समयबद्ध कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करे। रेल मंत्रालय ने सन 2022 तक सारे रेल कोचों में बायो टॉयलेट लगाने का आश्वासन दिया।
यह जानना अत्यंत दु:खद है कि इतने स्पष्ट कानूनी प्रावधानों के बावजूद सीवर लाइन की सफाई के दौरान हुई मौतों के लिए दोषी व्यक्तियों पर एफआईआर दर्ज होने का इक्का दुक्का उदाहरण भी कठिनाई से उपलब्ध है। इन दोषियों को दंड मिलने की बात तो वर्तमान भ्रष्ट और असंवेदनशील तंत्र में असंभव जान पड़ती है। प्राय: होता यह है कि सफाई कार्य करा रहे ठेकेदार बिना किसी सुरक्षा उपकरण के 200-250 रुपए की दिहाड़ी पर कार्य कर रहे इन मजदूरों को रस्से के सहारे मैनहोल से नीचे उतार देते हैं। जहरीली गैसों की जांच के लिए इनके पास माचिस की तीली जलाकर देखना और जीवित कॉकरोच डालकर परीक्षण जैसे आदिम तरीके ही होते हैं। इन सीवर लाइन्स में संचित जहरीली गैसों के प्रभाव से यह मजदूर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं या गंभीर अवस्था में बाहर निकाले जाते हैं।
चूंकि बाहर एम्बुलेंस, डॉक्टर या अन्य कोई आपात चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध नहीं होती इसलिए इनकी मृत्यु अवश्यम्भावी होती है। इसके बाद शुरू होता है मामले को रफा दफा करने का खेल। पुलिस, अधिकारी और ठेकेदार का गठजोड़ मृत्यु के कारण को बदलने का कार्य करता है। एक नाम मात्र की राशि मृतक के परिजनों को ठेकेदार द्वारा दे दी जाती है। यद्यपि ये सरकारी कार्य कर रहे होते हैं लेकिन सरकारें इन्हें अपना कर्मचारी मानने से इनकार कर देती हैं। इन्हें मुआवजा देने से वंचित कर दिया जाता है।
सफाई कर्मचारी आंदोलन ने इस चौंकाने वाले तथ्य की ओर ध्यानाकर्षण किया है कि मैनुअल सफाई व्यवस्था को समाप्त करने के लिए वर्ष 2014-15 में 570 करोड़ का बजट था जो 2017-18 में सिर्फ 5 करोड़ रह गया। जबकि स्वच्छ भारत अभियान का बजट 2014-15 में 4541 करोड़ था, जो 2017-18 में बढ़कर 16248 करोड़ हो गया है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत बनाए जा रहे करोड़ों शौचालयों के लिए सेफ्टी टैंक भी बनाए जा रहे हैं। सरकार द्वारा सन 2019 तक 21 करोड़ शौचालय निर्माण का लक्ष्य है। किन्तु सरकार ने सीवेज सिस्टम के सुधार के लिए कोई खास प्रयत्न नहीं किए हैं। स्वच्छ भारत अभियान शुरू होने के पूर्व ही शहरी इलाकों में एक तिहाई शौचालय सीवर लाइन्स से जुड़े नहीं थे। सरकारी दावे यह बताते हैं कि 2017 के अंत तक ग्रामीण इलाकों में 6 करोड़ नए शौचालय बन चुके थे। इन परिस्थितियों में इनकी मैनुअल सफाई की घटनाएं भी बढ़ेंगी। सीवर लाइन की सफाई के दौरान होने वाली दुर्घटनाएं अब तक महानगरों तक ही सीमित थीं इनका
विस्तार अब छोटे कस्बों और ग्रामीण इलाकों में होगा।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने कुछ दिल दहला देने वाले दृश्यों को उत्पन्न किया है। जेसीबी मशीन और हाइड्रोलिक कटर के उपयोग से मैन होल को बड़ा कर इन अभागे सफाई कर्मचारियों के सीवर की गंदगी में गहरे डूब चुके शवों को निकाला गया। एक छवि वह भी थी जब प्रधानमंत्री जी कुंभ के अवसर पर शानदार कार्य करने वाले स्वच्छता कर्मियों के चरण पखार रहे थे। न चाहते हुए भी इन दोनों छवियों की तुलना तो होगी ही। सरकार स्टार्टअप्स को बढ़ावा देने के लिए अपनी प्रतिबद्धताओं को बार बार दुहराती रही है। केरल के चार युवा इंजीनियरों के एक समूह द्वारा निर्मित स्टार्टअप फर्म जेनोरोबोटीक्स द्वारा विकसित रोबोट, बैंडीकूट का इस्तेमाल सीवर की सफाई के लिए करने के लिए किया जा सकता है। इन युवा इंजीनियरों का यह सपना है कि वे मैनहोल को रोबोहोल में बदल देंगे।
19 नवंबर 2018 को वर्ल्ड टॉयलेट डे के अवसर पर सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक ने भी एक स्वचलित मशीन के विषय में जानकारी दी थी जो मैनुअल स्कैवेनजिंग की समाप्ति कर सकती है। क्या सरकार इन मशीनों के निर्माण और जरूरतमंद लोगों तक इनकी पहुंच को सुनिश्चित करेगी? सरकार का विश्वास यदि जनता को छवियों के माध्यम से संदेश देने में है तब भी उसके लिए बहुत कुछ करणीय है। इन स्वच्छता सेनानियों की शहादत को सलाम करने के लिए इनके अंतिम संस्कार के समय जिले के डीएम, जनप्रतिनिधि और राज्य सरकार के मंत्री उपस्थित रह सकते हैं। अधिकतम संभावित मुआवजे की रकम अंतिम संस्कार के पूर्व ही परिजनों को दी जा सकती है और परिवार के किसी सदस्य को नौकरी का नियुक्ति पत्र भी प्रदान किया जा सकता है। फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन कर दोषियों को न्यूनतम समय में सजा दिलाई जा सकती है। जहां भी ऐसी दु:खद घटना होती है वहां के प्रशासनिक अधिकारियों पर दंडात्मक कार्रवाई की परिपाटी आरंभ की जा सकती है। शायद सुंदर, सकारात्मक और प्रेरक छवियों की चाह में ही सरकार भारतीय समाज की इस भयंकर कुरीति के विरुद्ध कोई कदम उठा ले।
डॉ राजू पाण्डेय (साभार-देशबंधु)
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