नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

गुरुवार, 19 मार्च 2020

क्यों और कैसे शुरू हुआ भूमकाल विद्रोह


मुरिया विद्रोह के अंत होने के बाद राजा भैरमदेव ने बस्तर पर राज किया, बस्तर की जनता को भैरमदेव पसंद नही थे, कुछ विद्रोहो के बाद बिल्कुल भी नही, उन्हें भैरमदेव के भाई कालेन्द्र सिंह पसंद थे। सम्पूर्ण बस्तर भैरमदेव  से ज्यादा कालेन्द्र सिंह का सम्मान करती थी, वे उस समय बस्तर के दीवान थे और आदिवासिओ पर प्रेम प्राप्त करने वाले वे एक मात्र सफल दीवान थे।
राजा भैरमदेव की 2 पत्नियां थी, किन्तु राजा का कोई पुत्र प्राप्त नही हुआ था, तो कालेन्द्र सिंह अपने आप को भावी  राजा के रूप में देखते थे। राजा भैरमदेव के अंतिम दिनों में उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई, जो कालेन्द्र सिंह को राजा बनने में एक बाधा प्रतीत हुई तो उन्होंने कुछ आदिवासी नेताओ को बुला कर यह अफवाह फैला दी कि कुंवर रुद्र प्रताप सिंह में राजा के अंश नही है और वे राजा बनने के योग्य नही है, जिसका समर्थन राजा की दूसरी पत्नी ने किया। इस बात से आदिवासिओ में रुद्र कुंवर के प्रति नफरत पैदा कर दी गई। राजा के अंतिम दिनों और परिस्तिथियों को देखते हुए किशोर रुद्र प्रताप को राजा घोषित कर दिया गया और इस बात से आहत होकर कालेन्द्र सिंह ने राजा के खिलाफ षड्यंत्र रचना चालू कर दिया।
राजा होने में बावजूद रुद्र प्रताप, कालेन्द्र सिंह से डरते थे। इस डर को मिटाने में लिए उन्होंने अपने पिता की तरह अंग्रेजों से हाथ मिला लिया और कालेन्द्र सिंह को दीवान पद से हटा दिया और पंडा बैजनाथ को नया दीवान बना दिया जो अंग्रेजों के चापलूस थे। इस फैसले ने आदिवासिओ को राजा के विरुद्ध जाने पर मजबूर कर दिया और विद्रोह को चिंगारी दी। इन परिस्थितियों का फायदा उठाते हुए कालेन्द्र सिंह ने भूमकाल की भूमिका रची और उन्होंने नेतानार गांव के एक उत्साह से भरे युवक जिसे बाहरी लोगों से नफरत थी , गुण्डाधुर को युद्ध के नेतृत्व की लिए चुना। और आगे की रणनीति तैयार की।
एक उम्दा रणनीतिकार  नेतानार का युवा गुण्डाधुर,
राजा और अंग्रेज के खिलाफ गुण्डाधुर ने अलग-अलग जनजातियों से नेता चुन कर पूरे बस्तर को एक धागे में बांध दिया। इन नेताओं ने संगठन बनाये जो सभी जगह से विद्रोह का नेतृत्व कर सके, जिसमे डेब्रिधुर, सोनू माझी, मुंडी कलार, मुसमी हड़मा, धानु धाकड़, बुधरु और बुटुल थे जो गुण्डाधुर के विश्वसनीय थे। इन्होंने गांव-गांव जा कर लोगो को एकत्रित किया। विरोध चिन्ह के रूप में डारा-मिरी को उपयोग किया गया, जिसमें आम की टहनी पर लाल मिर्च को बांध दिया जाता था।
जनवरी 1910 में ये सारे संगठन सक्रिय हो चुके थे। 2 फरवरी 1910 को पुसपल के बड़े बाजार में बाहरी व्यपारियो को मारा गया, 5 फरवरी को पूरा बाजार लूट लिया गया और आदिवासियों में बटवा दिया गया। गुण्डाधुर ने ऐसे बहुत बाजार को लुटवा कर बटवा दिया। 13 फरवरी तक लगभग दक्षिण-पश्चिम बस्तर गुण्डाधुर के समर्थकों के कब्जे में थी। नेतानार का एक साधारण युवा अद्भुत संगठन करता सिद्ध हुआ। ये बात अंग्रेजो तक पहुच चुकी थी, अंग्रजो में सैन्य टुकड़ी के साथ कप्तान गेयर को राजा और दीवान की मदत के लिए भेजा। राजा, पंडा बैजनाथ और गेयर ने सभी आदिवासिओ को शांत करने की नीतियां बनाई।
22 फरवरी को एक विरोध में 15 मुख्य क्रांतिकारी नेता गिरफ्तार किये गए, परंतु अंग्रेज सैनिक गुण्डाधुर को पकड़ना छोड़ उनका चेहरा भी नही देख पाए। कप्तान गेयर को गुण्डाधुर के साहस का अनुमान हो गया था। गेयर ने बस्तर की माटी की कसम कहते हुए सारे अत्याचार को खत्म करने की घोषणा की, जो अंत मे एक छलावा निकला ताकि वे गुण्डाधुर और उनके समर्थक को पकड़ सके। इसके बाद विद्रोह और बढ़ गया, महीनों तक गुण्डाधुर ने हर छोटी- बड़ी लड़ाइयों का नेतृत्व खुद किया, गेयर ने गुण्डाधुर को पकड़ने के कड़े निर्देश दिए। यह लड़ाइयों का क्रम काफी दिनों तक यूँ ही चलता रहा। करीब 14-15 लड़ाइयों में विजयी होने के बाद गुण्डाधुर ने कप्तान गेयर पर हमला कर दिया पर गेयर छिप कर भाग निकला
राजाअंग्रेजदीवान और अंग्रेजी सैनिक गुण्डाधुर के नाम से कांप उठते थे। पहली बार महीनों तक किसी आदिवासी ने अंग्रेजी रणनीतियों को भेदते हुए अपना परचम लहराया था।
24 मार्च 1910 को गुण्डाधुर और उनके समर्थक नेतानार में सारे लड़ाइयों का उत्साह मनाने के लिए एकत्रित हुए।  सोनू मांझी जो गुण्डाधुर के विश्वनीय थे, उसे अंग्रजो ने पैसे और सत्ता के लालच में खरीद लिया था। सभी आदिवासी युद्ध से थक चुके थे, भर पेट भोजन और महुवे के नशे में अपना संयम खो चुके थे। तब सोनू मांझी ने मौके का फायदा उठाते हुए, सारी जानकारी गेयर को दे दी। 25 मार्च को सुबह बहुत मात्रा में अंग्रेज सैनिक बदुको के साथ नेतानार के तरफ बढ़ गए , और शुरुवाती कस्बो में आदिवासियों पर गोली चलाना चालू कर दिया, गोलियों के आवाज़ ने गुण्डाधुर को सचेत कर दिया और वे बाकी लोगों को सचेत करने लग गए परंतु कोई धनुष-बाण छोड़ खुद खड़े होने लायक नही थे। गुण्डाधुर ने अपनी तलवार उठायी और घने जंगलों की ओर बढ़ गए , वे जानते थे कि उनके पकड़े जाने से महान भूमकाल का पूर्ण अंत हो जाएगा।
गेयर ने सभी आदिवासिओ पर देखते ही गोली चलाने और प्रमुख नेताओं को बंदी बनाने का हुक्म दिया। 21 माटी पुत्र शहीद हो गए,  डेब्रिधुर और उनके प्रमुख 7 क्रांतिकारी को बंदी बना लिया गया जिसमें माड़िया मांझी भी शामिल थे , जिन्हें कुछ दिन बाद नगर के बीच इमली के पेड़ पर फांसी दे दी गयी। जिससे भूमकाल शांत हो चुका था।
क्या हुआ भूमकाल की शांति के बाद ?
इन सारी घटनाओ के बाद कालेन्द्र सिंह के मित्रो ने आदिवासियों के साथ मिलकर अंग्रेजो के साथ संधि की जिसमे अवेध घुसपैठ, आदिवासिओ पर अत्याचार का अंत और बस्तर की भूमि पर शांति की स्थापना थी। जो गुण्डाधुर का स्वप्न्न था।
1910 के इस महान घटना में न गुण्डाधुर मारे गए न पकड़े गए, अंग्रेजी फाइल यह कह कर बन्द कर दी गयी कि कोई बताने के समर्थ नही है कि गुंडाघुर कौंन और कहां है। बस्तर के जंगल के चीखते सन्नाटे आज भी अपने पुत्र गुण्डाधुर का इंतज़ार कर रही है।
वर्तमान के छत्तीसगढ़ में गुण्डाधुर स्मृति में साहसिक कार्य एवं खेल क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए गुण्डाधुर सम्मान स्थापित किया गया है।
 साभार- कोसल कथा 
बस्तर 
बस्तर का इतिहास
बस्तर की बात 


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