नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 30 मई 2020

पत्थर गली-नासिरा शर्मा

 "मुस्लिम समाज सिर्फ़ 'ग़ज़ल' नहीं है बल्कि एक ऐसा 'मर्सिया' है जो वह अपनी रूढ़िवादिता की क़ब्र के सिरहाने पढ़ता है। पर उसके साज़ और आवाज़ को कितने लोग सुन पाते हैं और उसका सही दर्द समझते हैं? 

ये कहानियाँ उस समाज और परिवेश की हैं जो वास्तव में पत्थर गली है, जिसे तोड़ना आसान नहीं। मगर एक छटपटाहट है निकास-द्वार ढूँढने की और ये कहानियाँ उसी की तस्वीर पेश करती हैं। (पत्थर गली-नासिरा शर्मा)



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गुरुवार, 21 मई 2020

वैशाली की नगरवधू-आचार्य चतुरसेन

 "तुम्हें अभी यह जानना शेष है कि राजतन्त्र शस्त्रविद्या और बुद्धि-बल पर ही नहीं चलता। यदि ऐसा होता तो योद्धा लोग ही सम्राट बन जाते। वत्स, राजतन्त्र के बड़े जटिल ताने-बाने हैं, उसके अनेक रूप बड़े कुत्सित, बड़े वीभत्स और अप्रिय हैं। राजवर्गी पुरुष को वे सब करने पड़ते हैं। जो सत्य है, शिव है वही सुन्दर नहीं है आयुष्मान, नहीं तो मानव समाज सदैव लोहू की नदी बहाना ही अपना परम पुरुषार्थ न समझता।" 

यह कहते-कहते आचार्य उत्तेजना के मारे कांपने लगे। उनका पीला भयानक अस्थिकंकाल जैसा शरीर एक प्रेत के समान दीखने लगा और उनकी वाणी प्रेतलोक से प्रेरित-सी होने लगी।

 (वैशाली की नगरवधू-आचार्य चतुरसेन)



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शनिवार, 16 मई 2020

पृष्ठभूमि' बाली और सुग्रीव के साथ राम के अंतरसंबंधों की गाथा-नरेंद्र कोहली

 "तारा!" सुषेण बोले। "हां पिताजी," तारा का स्वर दृढ़ हो आया, "आपकी तारा और कर ही क्या सकती थी? मैंने एक ओर अपने पति के राजनीतिक विरोधियों नाश की कामना की और दूसरी ओर मेरा मन प्रजा की रक्षा के लिए सुग्रीव तथा अंगद के लिए शक्ति, सत्ता और दीर्घ-जीवन मांगता रहा। पुत्र को पिता के विरुद्ध ले चलने के लिए, मैंने सुग्रीव को सैकड़ों शाप दिए और अंगद को प्रजा हित के मार्ग पर ले चलनेवाले उसके गुरु सुग्रीव को मैंने अपनी समस्त सद्भावनाएं भेंट कीं," तारा के कंठ से हिचकियां फूट आईं, "अब मुझे कोई बताए, मेरे पति को मृत्यु के मुख में धकेलनेवाली अलका के लिए तुम लोगों से मृत्युदंड की प्रार्थना करूं अथवा उसे अपमानित जीवन से उबारने के लिए सम्राट और मायावी को विलुप्त करने के लिए ईश्वर का धन्यवाद करूं...।" 

तारा चुप हो गई, किन्तु न उसके आंसू रुके न हिचकियां।

 ('पृष्ठभूमि' बाली और सुग्रीव के साथ राम के अंतरसंबंधों की गाथा-नरेंद्र कोहली)




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गुरुवार, 14 मई 2020

बस्तर की संस्कृति और विरासत

बस्तर की कुछ परम्पराएं तो आपको एक रहस्यमय संसार में पंहुचा देती हैं। वह अचंभित किए बगैर नहीं छोड़ती। वनवासियों के तौर तरीके हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि चांद पर पहुंच चुकी इस दुनिया में और भी बहुत कुछ है, जो सदियों पुराना है, अपने उसी मौलिक रूप में जीवित है। बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक दशहरे को देशभर में उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस दिन भगवान राम ने लंकापति रावण का वध कर देवी सीता को उसके बंधन से मुक्त किया था. इस दिन रावण का पुतला जलाकार लोग जश्न मनाते हैं. लेकिन भारत में एक जगह ऐसी है जहां 75 दिनों तक दशहरा मनाया जाता है लेकिन रावण नहीं जलाया जाता है.
यह अनूठा दशहरा छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके बस्तर में मनाया जाता है और बस्तर दशहराके नाम से चर्चित है. इस दशहरे की ख्याति इतनी अधिक है कि देश के अलग-अलग हिस्सों के साथ-साथ विदेशों से भी सैलानी इसे देखने आते हैं. बस्तर दशहरे की शुरुआत श्रावण (सावन) के महीने में पड़ने वाली हरियाली अमावस्या से होती है. इस दिन रथ बनाने के लिए जंगल से पहली लकड़ी लाई जाती है. इस रस्म को पाट जात्रा कहा जाता है. यह त्योहार दशहरा के बाद तक चलता है और मुरिया दरबार की रस्म के साथ समाप्त होता है. इस रस्म में बस्तर के महाराज दरबार लगाकार जनता की समस्याएं सुनते हैं. यह त्योहार देश का सबसे ज्यादा दिनों तक मनाया जाने वाला त्योहार है.


मिस्त्र के पिरामिड़ तो पूरी दुनिया का ध्यान खींचते हैं, दुनिया के आठ आश्चर्य में शामिल हैं। लेकिन बस्तर में भी कुछ कम अजूबे नहीं है। यहां भी एक ऐसी ही अनोखी परंपरा है, जिसमें परिजन के मरने के बाद उसका स्मारक बनाया जाता है। भले ही वह मिस्त्र जैसा भव्य न हो, लेकिन अनोखा जरूर होता है। इस परंपरा को मृतक स्तंभ के नाम से जाना जाता है। दक्षिण बस्तर में मारिया और मुरिया जनजाति में मृतक स्तंभ बनाए बनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है। स्थानीय भाषा में इन्हें गुड़ीकहा जाता है। प्राचीन काल में जनजातियों में पूर्वजों को जहां दफनाया जाता था वहां 6 से 7 फीट ऊंचा एक चौड़ा तथा नुकीला पत्थर रख दिया जाता था। पत्थर दूर पहाड़ी से लाए जाते थे और इन्हें लाने में गांव के अन्य लोग मदद करते थे.


छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के माड़िया जाति में परंपरा घोटुल को मनाया जाता है, घोटुल में आने वाले लड़के-लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने की छूट होती है। घोटुल को सामाजिक स्वीकृति भी मिली हुई है। घोटुल गांव के किनारे बनी एक मिट्टी की झोपड़ी होती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मण्डप होता है.





साभार-  bastar.gov.in 
कृष्णधर शर्मा
krishnadhar Sharma
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