"मुस्लिम समाज सिर्फ़ 'ग़ज़ल' नहीं है बल्कि एक ऐसा 'मर्सिया' है जो वह अपनी रूढ़िवादिता की क़ब्र के सिरहाने पढ़ता है। पर उसके साज़ और आवाज़ को कितने लोग सुन पाते हैं और उसका सही दर्द समझते हैं?
ये कहानियाँ उस समाज और परिवेश की हैं जो वास्तव में पत्थर गली है, जिसे तोड़ना आसान नहीं। मगर एक छटपटाहट है निकास-द्वार ढूँढने की और ये कहानियाँ उसी की तस्वीर पेश करती हैं। (पत्थर गली-नासिरा शर्मा)
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