"शब्द विश्व के सबसे बड़े यायावर हैं। वे मनुष्य की अभिव्यक्ति के घोड़े पर सवार होकर यात्रा करते हैं। मानव एक मुसाफ़िर है, जो अपने साथ अपनी बोलचाल की भाषा लेकर चलता है। कभी विराम करता है, कभी आगे बढ़ता है। मुसाफ़िर जहाँ रुकता है, वहाँ अपनी कुछ-न-कुछ पहचान छोड़ जाता है। यह छूटी हुई पहचान उसके शब्द भी हो सकते हैं, जो उस स्थान पर उस मुसाफ़िर के स्मारक के रूप में रह जाते हैं। फिर मुसाफ़िर को तो भुला दिया जाता है, पर उसके छूटे हुए शब्द बाक़ायदा इस्तेमाल होते रहते हैं। बोलचाल की भाषाओं के माध्यम से शब्दों के आदान-प्रदान का यह सिलसिला अनादि काल से आज तक चला आ रहा है। इतना जरूर हुआ कि समय की छाप उनपर पड़ती रही है, जिससे कभी कभी शब्द की ध्वनियाँ बदलीं, कभी उनके अर्थ बदले और कभी दोनों ही बदल गए। और सब कुछ इतना बदल गया कि उनके मूल रूपों की पहचान कठिन हो गई। Ajit Wadnerkar अजित वडनेरकर ने अथक अध्यवसाय से उन शब्दों के मूल रूपों की खोज की और आज के पाठकों से उनका परिचय कराया। यह परिचय प्राप्त कर पाठकों को सुखद आश्चर्य होता है, क्योंकि अब तक वे जिन्हें पराया समझते थे, वे स्वजन निकले। यह भारतीय आर्य परिवार की बहुत बड़ी सेवा है। उन्होंने उसके नए आयाम खोजे और उसका विस्तार किया। (सुरेश कुमार वर्मा)" (शब्दों का सफ़र- अजित वडनेरकर)
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