नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

बुधवार, 19 अगस्त 2020

दुनिया को एक संदेश है राम जन्मभूमि मंदिर

 अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर दोबारा बनने जा रहा है। इस बीच, दुनिया के एक दूसरे हिस्से से आई खबर ने मेरा ध्यान खींचा है। इस्तांबुल में हागिया सोफिया म्यूजियम को हाल में फिर से मस्जिद बना दिया गया। यह तुर्की की सबसे बड़ी अदालत का फैसला था। तुर्की गणराज्य के संस्थापक कमाल अतातुर्क ने 1935 में सेक्युलरिज्म की राह पकड़ी थी और इसे म्यूजियम बना दिया था। लेकिन अदालत ने उनका निर्णय पलट दिया। दो साल पहले मैं तुर्की गया था। मुझे तभी लगा था कि वहां के लोगों के लिए यह भावनात्मक मुद्दा है। वे अपनी पवित्र जगह पर एक बार फिर इबादत करने को बेकरार थे। 

वहां के अधिकतर लोगों की नजर में म्यूजियम को फिर से मस्जिद बनाना बिल्कुल सही है, लेकिन मुझे ग्रीक ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों का दर्द भी समझ में आ रहा है।  प्रार्थना की हूक हागिया सोफिया बहुत पहले चर्च था। 1453 में तुर्कों ने कुंस्तुनतूनिया फतह कर लिया। वही कुंस्तुनतूनिया, जो करीब एक हजार साल से ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च का मरकज था। तुर्कों ने उसका नामोनिशान मिटा दिया। बसाया एक नया शहर इस्तांबुल और हागिया सोफिया चर्च को मस्जिद बना दिया। तो क्या ग्रीक ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों के मन में वहां प्रार्थना करने की हूक नहीं उठती? कुछ समय के लिए हागिया सोफिया एक रोमन कैथलिक चर्च भी था। ऐसे में क्या रोमन कैथलिक ईसाई भी वहां प्रार्थना नहीं करना चाहते होंगे? 

सबसे बड़ी विडंबना यह कि किसी को भी आदिम धर्म (पैगन) में विश्वास करने वालों के टेंपल का दर्द महसूस नहीं हो रहा। वह टेंपल, जिसकी बुनियाद पर 1500 साल पहले हागिया सोफिया को बनाया गया। दरअसल यूरोप में प्रचलित धर्मों से अलग आदिम धर्मों को मानने वाला अभी शायद ही कोई हो। तो जब कोई पैगन है ही नहीं तो उस ऐतिहासिक गलती का दर्द कौन महसूस करे?  पैगन एक निषेधात्मक शब्द है। इसका इस्तेमाल उनके लिए किया जाता है जो अब्राहमिक न हों। यानी जो इस्लाम, ईसाई या यहूदी धर्मों को न मानते हों। 

लोग भूल गए हैं कि एक समय पूरा विश्व ही ‘पैगन’ था। मूर्ति पूजक था, देवियों की पूजा करता था और प्रकृति उपासक था। उन लोगों के लिए कोई एक सच नहीं था। वे दिव्यता के कई रूपों के साथ सहज थे। यहां तक कि नास्तिक भी उनमें शामिल थे। लेकिन वे सारी संस्कृतियां नष्ट कर दी गईं। अधिकतर को खून-खराबे के जरिए मिटाया गया। दूसरों के धर्म परिवर्तन के जरिए अपना विस्तार करने में यहूदी धर्म की दिलचस्पी ना के बराबर थी। लेकिन ईसाइयों और मुसलमानों ने आदिम धर्मों पर विश्वास रखने वालों पर बेइंतहा जुल्म किए, उनका नरसंहार किया।  कैथरीन निक्सी की ‘द डार्केनिंग एज’ सहित कई किताबों में इसका दुखद वर्णन है। 

हालांकि यह बात भी पुरजोर तरीके से कही जानी चाहिए कि सभी ईसाइयों या मुसलमानों ने पैगन लोगों पर अत्याचार नहीं किए। कुछ समूह थे, जिन्होंने मार-काट की। इनमें सबसे आगे थे यूरोप के ईसाई और तुर्किक मुसलमान। यह हिंसक विस्तारवादी रुझान अफ्रीकी ईसाइयों और इंडोनेशिया के मुसलमानों में नदारद था। लेकिन यह भी है कि यूरोप और तुर्की के अभी के लोगों का उनके पूर्वजों के कृत्य से कोई लेना-देना नहीं है।  इतिहास की यह बात हम भारतीयों के लिए क्यों अहम है? इसलिए कि हम उन कुछ ‘सनातन संस्कृतियों’ में से हैं, जिनका अस्तित्व खत्म नहीं हुआ। 

कांस्य युग के पहले की एकमात्र सभ्यता हमारी है, जो निरंतर चली आ रही है। चीन भी ‘पैगन कल्चर’ है लेकिन वह कांस्य युग के पहले की सभ्यता नहीं है। जो कुछ दूसरे आदिम धर्मों पर विश्वास करने वालों पर गुजरी, उसे हमने भी सहा। 1000 ईसवी से लगातार हमले हुए। पहले तुर्कों के कई कबीलों के हमले, फिर यूरोप के साम्राज्यवादियों के। उन विदेशी हमलावरों ने हजारों मंदिर ध्वस्त किए और वहीं पर मस्जिदें या चर्च बनाए गए, कभी-कभी तो गिराए गए मंदिर के अवशेषों से ही। 

सीताराम गोयल ने अपनी किताब ‘हिंदू टेंपल्स: व्हाट हैपेंड टु देम’ में ऐसे कई उदाहरण दर्ज किए हैं। दसियों विश्वविद्यालयों को जलाकर राख कर दिया गया। कई सदियों में करोड़ों लोगों को कत्ल किया गया।  हमारे साथ जो हुआ वह कोई अलग बात नहीं थी। दुनिया में लगभग हर प्राचीन संस्कृति के साथ ऐसा ही हुआ। लेकिन खास बात यह है कि हमने अपना अस्तित्व बनाए रखा। कैसे और क्यों? इसका एक प्रमुख कारण यह है कि हमारे पूर्वजों ने आत्मसमर्पण नहीं किया। मुझे याद आ रही है बैरन मैकाले की एक शानदार पंक्ति। वही मैकाले जिनका नाम सुनकर भारत में कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। उन्होंने लिखा था, ‘अपने पूर्वजों की अस्थियों और अपने देवताओं के मंदिरों के लिए मर-मिटने से बेहतर और क्या तरीका हो सकता है जान देने का!’ हमारे पूर्वजों ने यही किया। पुनर्निर्माण का जिम्मा हमारा है लेकिन हमें याद रखना होगा कि पुनर्निर्माण करते हुए हमें अपने पूर्वजों का या उनकी जीवन शैली का अपमान नहीं करना है।  

सनातन, शाश्वत, एकजुट हमें धर्म का पालन करना होगा। जो हमारी सभ्यता के साथ हुआ, वह हमें सच-सच कहना होगा, लेकिन बिना नफरत के। हमें समझना होगा कि आधुनिक दौर के पहले के यूरोपीय लोगों, तुर्कों और दूसरे विदेशी हमलावरों ने जो किया, उससे आज के भारतीय मुसलमानों और ईसाइयों का कोई लेना-देना नहीं है। हमें एकजुट होकर, एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना के साथ अपने मंदिरों और विहारों को दोबारा बनाना होगा। उनको हमें केवल पूजास्थलों के रूप में नहीं, बल्कि ज्ञान और सामाजिक समरसता के केंद्र के रूप में विकसित करना चाहिए, जैसे वे प्राचीन काल में थे।

 यह पुनर्निर्माण एक पूरी सभ्यता से जुड़ी जिम्मेदारी है। अपने पूर्वजों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति यह दायित्व हमें निभाना है। ये दुनिया को हमारा संदेश है कि हम नष्ट नहीं होंगे, हम सनतान हैं, हम शाश्वत हैं और सबसे अहम बात यह कि हम एकजुट हैं। हम सभी 130 करोड़ लोग। जय श्रीराम। जय मां भारती।  अमीश त्रिपाठी (साभार- NBT)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें