'सच बात है, बुड्ढा अजीब ही था। मुख्यमंत्री ने उसकी एक बड़ी मूरत लगवायी थी एक बार कहते है आधा करोड़ रुपया खर्च हो गया था उसमें बुड्ढा जाने कब वहां गया। पहले तो उसने उस मूरत को गिराने की कोशिश की। मगर वह तांबे की बनी थी। काफी वजनी थी। बुड्ढे ने एक पत्थर लेकर उसकी नाक और आंखें पिचकार्थी और गुस्से में उसके ऊपर पेशाब करके आ गया। सुबह उस पर एक परचा चिपका हुआ लोगों ने देखा, लिखा था- हे राम, ये लोग आदमी को तब तक नहीं पहचानते, जब तक वह देवता न हो जाये। कोई देवता न होना चाहे तो उसे जबरदस्ती बनाते हैं। बड़ा बनने और बनाने का रिवाज कब टूटेगा? मेरे हरिजन भाई की मूरत यहां क्यों नहीं लगी? इतने पैसे लगा दिए, अरे, मेरे गरीब देश को दे देते ये पैसे!
नीचे दस्तखत था मोहनदास कर्मचन्द गांधी। लोगों को बहुत अच्छा नहीं लगा। परसराम लिमिटेड के मालिक ने दस लाख रुपया दिया था मूरत के लिए। उसने अपने अखबार में इस बात पर आक्रोश प्रकट किया कि ऐसे कीमती स्मारकों को अपवित्र होने से सरकार बचा नहीं सकती। इसके बाद स्थिति और बुरी हो गयी। दुनिया से गरीबी दूर करने की समस्या पर विचार करने के लिए एक बहुत बड़ा सम्मेलन राजधानी में आयोजित हुआ था। दुनिया के बड़े-बड़े देशों से ऊंची-ऊंची हस्तियां आ रही थीं, जिनके लिए खूबसूरत इलाके में शानदार इमारतें बनायी गयी थीं। इन इमारतों में बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी सुविधाएं रातों-रात तैयार की गयी थीं और यहीं बुड्ढे ने गड़बड़ी खड़ी कर दी।
इमारतों के पाखानों की सफाई के लिए भगियों की फौज में बुद्धा भी आ खड़ा हुआ था। आजादी की लड़ाई के दिनों जो पत्रकार महीनों गांधी के साथ रहा था, उसने एक सुबह देखा, उसके फ्लैट के पाखाने की सफाई वही जाना-पहचाना बुड्ढा कर रहा था। वह फ्रांसीसी पत्रकार अंग्रेजी कम जानता था। फ्रांसीसी में लगभग चीखता हुआ फ्लैट से बाहर भागा। थोड़ी देर में वहां विदेशी देशी प्रतिनिधियों की भीड़ लग गयी। बुड्ढा किसी से कुछ नहीं बोला। बुड्ढा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छपी तस्वीरों से काफी अलग था। हजामत शायद कई रोज से नहीं हुई थी। सर्दी के मौसम में भी उसने सिर्फ एक अंगोछा कमर पर लपेट रखा था। बदन पर बेहद मैला, फटा हुआ, तंग करता था। उसके बदन की खाल जगह-जगह से चटख-सी गयी थी। दरवाजे के पास उमड़ी हुई भीड़ के चेहरे पर किसी कदर आतंक भरा कुतूहल था। धैर्य के साथ अपना काम खत्म करने के बाद फिनायल का डिब्बा, पोंचा और झाडू उठा ली। दरवाजे के करीब वह आया तो सहसा भीड़ बीचों-बीच से फट गई। बुड्ढा बाहर आया, फिर ठिठक गया। कमर में उसने कुछ परचे उड़स रखे थे। शायद वह इसके लिए तैयार था। उसने परचों को सावधानी से खोला और उनमें से कुछ परचे उसने लापरवाही से फर्श पर फेंक दिए और भीगे पांव घसीटता हुआ सीढियों की ओर चल दिया। गनीमत थी कि परचे लोगों के हाथों सही-सलामत आ गए। परचों पर विशेष कुछ नहीं था, सिर्फ लिखा था -हमारी गरीबी का मजाक मत उड़ाओ, महलों में गरीबी पर बहस होने भर से आदमी का दुख कम नहीं होगा, बढ़ेगा। यहां से चले जाओ, हमें हमारे हाल पर छोड़ दो!-गांधी। (दांत या नाखून का पत्थर- मुद्राराक्षस)
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