चलो अच्छा हुआ कि मर गए
उनकी भी जान छूटी और हमारी भी
नजरें बचाते हुए, उसने मन ही मन सोचा
वैसे भी, अक्सर बीमार ही तो रहते थे!
न अपने किसी काम के थे, न हमारे
उनके बदबूदार कपडे धोने से
नौकरानी भी कतराती थी अब तो
बहु की तो खैर बात ही नहीं
उनको भी तो, मर जाना चाहिए था
कई साल पहले ही
तब, जब माँ ही चल बसी थीं
कैंसर की लाइलाज बीमारी से
वैसे भी, इतने साल जीकर
आखिर क्या हासिल कर लिया उन्होंने
बिस्तर पर ही तो पड़े थे पिछले दो सालों से
न उनको कहीं आना-जाना
न हम ही जा पाते थे उन्हें छोड़कर कहीं भी
दो-चार दिन घूमने के लिए भी
इस तरह की कई बातें सोचते हुए
दे रहा था तसल्ली अपने मन को
अपराध बोध से बचने के लिए...
(कृष्णधर शर्मा 27.02.2023)
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