अमीर माविया ने हर मुकाम पर अपने आज़मूदार इस्लामी गवर्नर बना दिए, जिन्हें अपनी फौज रखने की इजाज़त थी। वह मालिक और आम मुसलमान उनके ग़ुलाम बन गए। वह जिसे चाहते जिलाते, जिसे चाहते मारते। कोई पुरसाहाल न था। सिर्फ एक शर्त थी कि अमीर माविया को अपना ख़लीफ़ा मानें और उनके जाती ख़ज़ाने के लिए मुकर्रर टैक्स देते रहें। इसके अलावा जैसी वसूली करना चाहें, रिआया से कर लें। अगर अवाम उन्हें मनमानी करने से रोकना चाहें तो अमीर माविया की ज़बर्दस्त फौज उनकी मदद को पहुँच जाएगी। इसका चंद साल में ही यह नतीजा हुआ कि चंद बड़े-बड़े ताकतवर सरदार बहुत अमीर हो गए। बाकी अवाम में गुरबत बढ़ गई। अवाम की लूट शुरू हो गई। ख़वास फिर उन ऐयाशियों और बदकारियों में गर्क हो गए, जिनके ख़िलाफ़ एक दिन इस्लाम ने जंग की थी।
दो ख़िलाफ़तें कायम हो गईं। एक अली की इस्लामी उसूलों की कायम हुई जम्हूरियत', दूसरी तरफ अमीर माविया की शहंशाहियत'। अली आम ग़रीब इंसान के साथ थे। मगर अमीर माविया की ताकत और दौलत ज्यादा कामयाब साबित हो रही थी। अमीर का साथ देने में बड़े फायदे थे, जबकि अली के साथ उड़बार की नेमतें थीं। दुनिया की नेमतें उकबा के दावों पर ग़ालिब आ गई।
हुनैन के मुकाम पर मुसलमानों में आपस ही में जंग छिड़ गई। अमीर माविया के साथ ज़बर्दस्त फ़ौज थी। दौलत तो थी मगर यकीन की कमी थी। उस पर अली बिन अबी तालिब की फुतूहात' की हैबत' तारी थी।
आम अरब बड़ा वहमी होता है। वह बड़ी आसानी से जज़्बात की रौ में बह जाता है। इंसान सिर्फ हथियारों से नहीं लड़ते, ईमान भी साथ में होना लाज़मी है। अमीर माविया ने अपनी फौज को यकीन और भरोसे की कमी की वजह से पस्पा' होते देखकर फौरन अपनी सियासते-अमली' से काम लिया। कुरान दरम्यान में रखकर जंग रोक दी। अली उनकी यह चाल पहचान गए। उन्होंने बहुत कहा, “यह अमीर माविया की कोई तदबीर है। जंग बंद करवा के वह कोई नई चाल चलने वाले हैं ताकि अपनी शिकस्त को नया मोड़ दे सकें।" मगर यह मुसलमान और काफिर की जंग नहीं थी। यह दो इस्लामी गिरोहों की जंग थी। कुरान के बीच में आने के बाद जंग न रोकना करान की तौहीन थी। (एक कतरा खून-इस्मत चुगताई)
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