यों तो शहर में चीनी मिलें भी कई खुल गई थीं, मगर गाँव में नवम्बर से लेकर फरवरी-मार्च तक कोल्हू चलते थे और गन्नों का रस बड़े-बड़े कड़ाहों में पकाकर मिट्टी के बहुत लम्बे-चौड़े चाकों में डालकर लकड़ी के बेलचों से खूब चाँड़ा जाता था। जब वह ठंडा होकर सख्त होने लगता था तो उसे गुड़ की भेलियों की शक्ल में ढाल दिया जाता था।
मैं भी अपने छुटपन में चच्चा और मन्नी बाबा के साथ-जब वह अपनी बारी आने पर बैलों की जोट (जोड़ी) लेकर कोल्हू पर जाते थे-चल पड़ता था और कभी- कभी तो रात-भर उस झोंपड़ी में रह जाता था जहाँ पूरी रात में चाक में कई बार गुड़ बनाया जाता था। जो लोग उस समय कोल्हू पर होते थे उन्हें गरम ताजे गुड़ के गोल-गोल ढेले दिए जाते थे। कुछ उन्हें उसी वक्त खा लेते थे तो कुछ सँभाल कर रख लेते थे और घर जाते समय अपने साथ ले जाते थे।
गाँव की जिन्दगी के यह तीन-चार महीने बहुत खुशगवार होते थे। खेतों में मटर और चने की फसल फल-फूल रही होती थी। हम लोग खेतों में निकल जाते थे, खूब मटर की फलियाँ तोड़-तोड़ कर खाते थे। ईख के खेतों से गन्नों को झटका देकर तोड़ लेते थे। खेतों की मेड़ों पर फसकड़ा मारकर बैठ जाते थे और ढेरों गन्ने चूस डालते थे। इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता था कि हम किस खेत से गन्ने चटका रहे हैं या किसके खेत से मटर की फलियाँ तोड़-तोड़कर खा रहे हैं। गाँव की जिन्दगी में उस वक्त मेरा-तेरा का कोई भेद नहीं था। महिलाएँ और नौजवान युवतियाँ खेतों में घूम-घूमकर चने और सरसों का साग खोंटती रहती थीं। घर लाकर हँडियों में उस साग को पकाया जाता था। मक्का और बाजरे की रोटियों के साथ, सरसों और चने का साग कितनी बड़ी नियामत थी- इसे कहकर नहीं बताया जा सकता। साग के साथ छाछ और 'गुड़ भी मिल जाते थे तो मन्नी बाबा कहते थे, “बस सुरग अबै बालिस्तेक दूर रह गयो हतै।" मैं उनसे पूछता था कि “सुरग पूरा क्यों नहीं मिल गया यह एक बालिश्त दूर क्यों रह गया?” वह हँसकर जवाब देते थे, “बाबरे, पूरा सुरंग तो मरके ई मिल्यो करै है - जीते-जी तो बस सुरंग को सुख ई कदी-कदा मिले जात हैगो।” (खोई हुई दिशाएँ- से. रा. यात्री)
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