कुछ टुकड़े, बाक़ी राख । कैफ़े के पंखें यों नरम पिघले लचके ज्यों नृत्यांगना की मुद्राएँ। बर्तन झाड़न यों लटके कतार में और बोतलें भी, जैसे काली अदाकारियों की नुमाइश । पूरा कैफ़े किसी कलाकार का स्याह सपना । टुकड़े टुकड़े। एब्स्ट्रेक्ट आर्ट । टुकड़े टुकड़े। जो कुर्सियाँ हो सकती थीं, मेज़, इडली, साम्भर, गुलाबजामुन, पाव भाजी, अब काले और चूर चूर । टुकड़े, जो लोग हो सकते थे, लड़के और लड़कियाँ, युनिवर्सिटी की इमारत में घुसने के पहले। टुकड़े, जो उन्नीस जन जुड़ते अगर जोड़ना आता तोड़नेवाले को। अगर होता वह ब्रह्मा विष्णु महेश सब !
उन्नीस लोग। जिनकी पहचान होनी थी। टुटहे फुटहे टुकड़े जिनकी पहचान बाक़ी थी। पहचान में डालना ही टुकड़े में तोड़ना है। यहाँ कोशिश हो रही थी टुकड़ों को पहचानने की !
और एक मैं, साबुत टुकड़ा, जिसे चींटियाँ गोद रही थीं या गोद में लिये थीं ! उन्नीस जन के टुकड़े और तीन बरस का टुकड़ा जो किसी का भी हो सकता था, बम का भी, या बम ही, या दानव, या देव, जो आता है अभी भी रातों में खुरच खुरच चींटियों को लेकर कि मुझ पर पड़ी नींद का कवच उतार दें खुरच खुरच और फिर वही तीन बरस का पड़ा हो ख़ाली जगह में और फिर वही भकभक लपटें उससे दूर मगर एकदम पास उछलें और फिर वही अट्ठारह बरस के टुकड़े टुकड़े अँधेरे में भर जाएँ जिनके बीच से फिर सब गिरता ही गया गिरता ही गया और है किसी का दिल जो धड़के जा रहा है विस्फोट के पहले और है उसी की नींद जो उतर गई है खुरच खुरच और पूरी लम्बी रात है जिसे पार करना है किसी तरह किसी न किसी तरह ... | मेरे पूरे बदन पर लाल लाल रैश फट पड़ता है। (खाली जगह- गीतांजलि श्री)
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