नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

बुधवार, 31 जनवरी 2024

अग्निगर्भ- महाश्वेता देवी

 प्राचीन भारत के आदर्श में तरुण लोगों के लिए जगह नहीं है। सारे स्थान वृद्धों के ही लिए हैं। विरोधी पक्ष 'कॉज के लिए सर्मापत फ़ाख़्ता' छोकरों को ऊपर उठाता है और उन्हें नाम देता है 'तरुण तुर्क' । पार्टी वह भूल नहीं करती। मैदान मैं और मेनीफ़ेस्टो में वे युवकों से डबल जोर से पुकार कर कहते हैं, 'रक्त दो।' किन्तु कार्यकाल में किसी तरह गद्दी नहीं छोड़ते । एक भी नया काडर' तैयार नहीं करते। एक बार जो लीडर बन गया, आज भी वही लीडर है-सिर्फ वामपंथ में ! ब्लडप्रेशर, रक्त में शर्करा, हृद्धाप-सत्र लेकर आज भी वे नक़ली दाँत और लटकती खाल लिये पद संभाले हुए हैं। ब्रूटस की तरह ये ऑनरेबल मेन हैं। 

हज़ारों कार्यकर्ताओं की हालत काली की तरह है। ये सब प्रश्न कलेजे में लिये तमाम लोगों को आउट ऑफ़ लॉयल्टी चुप रहना पड़ता है। पार्टी इमेज को रिइटरेट करके चलना पड़ता है। परिणामस्वरूप पत्नी-पुत्र- परिवार एक छत के नीचे रहते हुए भी दूर हो जाते हैं। होंठों के कोने लटक जाते हैं, चेहरे पर रेखाएँ पड़ जाती हैं, भयंकर रूप से आशाएँ टूट जाती हैं, मन का संताप कलेजे में दवाकर बढ़ते रहना पड़ता है। 

यह प्रक्रिया नाशकारी है। पार्टी के पक्ष में। अच्छा काडर वह मिट्टी है जिस पर पार्टी खड़ी है। काडर के मन में प्रश्न उठते रहते हैं। उस मिट्टी का कटाव होता रहता है। थोड़े-थोड़े कटाव से धरती उर्वरता खोकर नष्ट हो जाती है। निचली मिट्टी में निरंतर मृदा का क्षरण होते रहने से पार्टी में धँसाव नहीं होगा ? 

यह सोचकर ही काली साँतरा का मन बैठ जाता। उसके पहले काली मरना चाहता है। कार्यकर्ता के प्रति पार्टी के अन्यायी मनोभाव के फलस्वरूप खिसकाव होने से पार्टी नहीं रहेगी ? पार्टी नहीं रहेगी ? पार्टी न रहे, ऐसे दिन की बात काली साँतरा सोच नहीं सकता है। पार्टी सदा रहे, तुम रहो। तुम्हारे लिए मैंने अपने को कब का उजाड़ कर दिया है। वह 'सोने का बंगाल श्मशान बन गया' उसी 'जनयुद्ध' अखबार के जमाने से । मैन-मेड फ़ेमिन इन बेंगाल । मैन मेड फ़ेमिन । फ़ेमिन या दुभिक्ष इस तरह का नहीं होता है। 

आदमी आदमी को नहीं समझता, पार्टी मनुष्य की समस्त सत्ता को लील जाती है और बदले में प्रयोजनीय स्नेह और अंडरस्टैंडिग देना भूल जाती है। परिणामस्वरूप मानव मनुष्यों के मन में एक और ही क़िस्म का अकाल तैयार करता है। मिट्टी का कटाव होने से आजकल पौधे बौने रह जाते हैं। (अग्निगर्भ- महाश्वेता देवी)



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शनिवार, 20 जनवरी 2024

नील कुसुम- रामधारी सिंह दिनकर

 पत्थरों में भी कहीं कुछ सुगबुगी है? 

दूब यह चट्टान पर कैसे उगी है? 

ध्वंस पर जैसे मरण की दृष्टि है, 

सृजन में त्यों ही लगी यह सृष्टि है। 

एक कण भी है सजल आशा जहाँ, 

एक अंकुर सिर उठाता है वहाँ। 

मृत्यु का तन आग है, अंगार है;

 जिन्दगी हरियालियों की धार है। 

क्षार में दो बूँद आँसू डाल कर, 

और उसमें बीज कोई पाल कर, 

चूम कर मृत को जिलाती जिन्दगी। 

फूल मरघट में खिलाती जिन्दगी ।. 

निर्झरी बन फूटती पाताल से, 

कोंपलें बन नग्न, रूखी डाल से। 

खोज लेती है सुधा पाषाण में, 

जिन्दगी रुकती नहीं चट्टान में। 

बाल - भर अवकाश होना चाहिए, 

कुछ खुला आकाश होना चाहिये, 

बीज की फिर शक्ति रुकती है कहाँ?  

भाव की अभिव्यक्ति रुकती है कहाँ?

 (नील कुसुम- रामधारी सिंह दिनकर)




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सोमवार, 15 जनवरी 2024

पाकिस्तान मेल- खुशवंत सिंह

 इकबाल ने बर्दाश्त करने की कोशिश की, "आप लोग आजाद होना क्यों नहीं चाहते? आप क्या जिन्दगी भर गुलाम ही बने रहना चाहते हैं?" 

लम्बी चुप्पी के बाद लम्बरदार बोला, "आजादी में जरूर कोई अच्छी बात होगी। पर हमें इससे क्या मिलना-मिलाना है? आप जैसे पढ़े-लिखे लोगों को अंग्रेजोंवाली नौकरियाँ मिल जाएँगी। हमें क्या और जमीनें मिलेंगी? और भैंसें मिलेंगी?"

 "नहीं," मुस्लिम ने कहा, "आजादी तो उन्हीं पढ़े-लिखे लोगों के लिए है जिन्होंने उसके लिए लड़ाई लड़ी। हम तो पहले अंग्रेजों के गुलाम थे, अब पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानियों या पाकिस्तानियों के होंगे?"

 इकबाल उनके इस विश्लेषण से काँप उठा।

 "जो आप लोग कहते हैं; वह बिलकुल ठीक है," उसने सहृदयता से हामी भरते हुए कहा, "अगर आप किसान और मजदूर आजादी से कुछ चाहते हैं तो आपको एकजुट होकर लड़ना होगा। कांग्रेसी सरकार के इस बरगद को उखाड़ना होगा। जमींदारों और राजों-रजवाड़ों को मिटाना होगा। तभी आजादी का आप लोगों के लिए कोई मतलब होगा। आपको ज्यादा जमीनें मिलेंगी और पैसे मिलेंगे। और आप पर कोई कर्ज भी नहीं चढ़ेगा।" 

मीत सिंह ने फिर बीच में टोका, "यही तो वह भी कह रहा था। अरे वही...लम्बरदारा! क्या नाम था उसका? कुछ कामरेड...! बाबू साहब। आप भी क्या कामरेड हो?"

 "नहीं।" 

"चलो अच्छा हुआ। वह कामरेड तो भगवान में भी विश्वास नहीं करता था। कह रहा था कि अगर उसकी पार्टी की सरकार बनी तो वे तरन-तारन के पवित्र तालाब को खाली करके इसमें धान बोएँगे। कहता था, उससे ज्यादा फायदा होगा।"

 "यह सब फालतू की बकवास है।" इकबाल ने कहा और मन-ही-मन सोचा कि काश मीत सिंह को उस कामरेड का नाम याद होता। उसकी तो हेड-क्वार्टर में रिपोर्ट करके सबक सिखाना चाहिए था। प्रत्यक्ष में वह उनसे बोला, "अगर हमें ऊपरवाले में विश्वास न हो तो हममें और पशुओं में फर्क ही क्या?" 

मुस्लिम ने गम्भीर होते हुए कहा, "धार्मिक आदमी की तो सारी दुनिया कद्र करती है। गांधी को देखो! मैंने सुना है कि वह अपने वेदशास्त्रों' के साथ-साथ कुरान और अंजील भी पढ़ते हैं। दुनिया के चारों कोने में उनकी धूम मची है। गांधी की प्रार्थना सभा की एक फोटो मैंने अखबार में देखी थी। उसमें बहुत सारे अंग्रेज आदमी और औरतें भी पालथी मारकर बैठे थे। एक अंग्रेज़ लड़की आँखें बन्द किए बैठी थी। कहते हैं वह बड़े लाट साहब की बेटी है। मीत सिंह! देखा तुमने, अंग्रेज तक धार्मिक आदमी की कद्र करते हैं।" 

"हाँ, चचा! आपकी बात सोलह आने सच है," मीत सिंह ने अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए हामी भरी।

 इकबाल को गुस्सा चढ़ने लगा था, "उनकी तो नस्ल ही चार सौ बीसों की है," उसने जोर देकर कहा, "उनकी बात पर भरोसा मत करो!" 

एक बार फिर उसने महसूस किया कि उसका तीर खाली गया। लेकिन फिर भी सच्ची बात यही थी कि वह न तो कभी लॉर्ड साहब की बेटी का प्रेस-फोटोग्राफरों के फायदे के लिए आँखें बन्द किए पालथी मारकर प्रार्थना-सभा में बैठना सह पाया था, न ही हिन्दुस्तानी बोलनेवाले, किंग जॉर्ज के भतीजे, स्वयं बड़े लॉर्ड साहब का हिन्दुस्तान के प्रति मिशनरियों का-सा प्रेमभाव। उसने कहा- 

"मैं उनके मुल्क में कई बार रहकर आया हूँ। इसमें कोई शक नहीं कि वे इनसान बहुत अच्छे हैं, लेकिन राजनीतिक नजरिए से देखा जाए तो वे दुनिया के सबसे बड़े चार सौ बीस हैं। अगर वे ऐसे ही ईमानदार होते तो दुनिया के कोने-कोने में उनका राज न फैला होता।" इकबाल ने उन्हें समझाते हुए कहा। फिर सोचा कि अब बात बदलनी चाहिए, "खैर, उन सब बातों का अभी कोई तुक नहीं। सोचने की बात तो यह है कि अब क्या होना चाहिए।" 

लम्बरदार ने भी जरा तुर्शी से जवाब दिया, "हम जानते हैं, अब क्या हो रहा है, मुल्क में तबाही की हवाएँ चल रही हैं। चारों तरफ एक ही शोर है-मारो, मारो! बस जिन्हें कोई आजादी है तो वे हैं-चोर, डाकू और गलाकाटू लोग।" फिर तनिक हौले से बोला, "हम तो अंग्रेजों के नीचे ही भले थे। कम-से-कम कोई हिफाजत तो थी जान-माल की।" (पाकिस्तान मेल- खुशवंत सिंह)




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