नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 20 जनवरी 2024

नील कुसुम- रामधारी सिंह दिनकर

 पत्थरों में भी कहीं कुछ सुगबुगी है? 

दूब यह चट्टान पर कैसे उगी है? 

ध्वंस पर जैसे मरण की दृष्टि है, 

सृजन में त्यों ही लगी यह सृष्टि है। 

एक कण भी है सजल आशा जहाँ, 

एक अंकुर सिर उठाता है वहाँ। 

मृत्यु का तन आग है, अंगार है;

 जिन्दगी हरियालियों की धार है। 

क्षार में दो बूँद आँसू डाल कर, 

और उसमें बीज कोई पाल कर, 

चूम कर मृत को जिलाती जिन्दगी। 

फूल मरघट में खिलाती जिन्दगी ।. 

निर्झरी बन फूटती पाताल से, 

कोंपलें बन नग्न, रूखी डाल से। 

खोज लेती है सुधा पाषाण में, 

जिन्दगी रुकती नहीं चट्टान में। 

बाल - भर अवकाश होना चाहिए, 

कुछ खुला आकाश होना चाहिये, 

बीज की फिर शक्ति रुकती है कहाँ?  

भाव की अभिव्यक्ति रुकती है कहाँ?

 (नील कुसुम- रामधारी सिंह दिनकर)




#साहित्य_की_सोहबत  #पढ़ेंगे_तो_सीखेंगे

#हिंदीसाहित्य  #साहित्य  #कृष्णधरशर्मा

Samajkibaat समाज की बात


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें