पत्थरों में भी कहीं कुछ सुगबुगी है?
दूब यह चट्टान पर कैसे उगी है?
ध्वंस पर जैसे मरण की दृष्टि है,
सृजन में त्यों ही लगी यह सृष्टि है।
एक कण भी है सजल आशा जहाँ,
एक अंकुर सिर उठाता है वहाँ।
मृत्यु का तन आग है, अंगार है;
जिन्दगी हरियालियों की धार है।
क्षार में दो बूँद आँसू डाल कर,
और उसमें बीज कोई पाल कर,
चूम कर मृत को जिलाती जिन्दगी।
फूल मरघट में खिलाती जिन्दगी ।.
निर्झरी बन फूटती पाताल से,
कोंपलें बन नग्न, रूखी डाल से।
खोज लेती है सुधा पाषाण में,
जिन्दगी रुकती नहीं चट्टान में।
बाल - भर अवकाश होना चाहिए,
कुछ खुला आकाश होना चाहिये,
बीज की फिर शक्ति रुकती है कहाँ?
भाव की अभिव्यक्ति रुकती है कहाँ?
(नील कुसुम- रामधारी सिंह दिनकर)
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