इकबाल ने बर्दाश्त करने की कोशिश की, "आप लोग आजाद होना क्यों नहीं चाहते? आप क्या जिन्दगी भर गुलाम ही बने रहना चाहते हैं?"
लम्बी चुप्पी के बाद लम्बरदार बोला, "आजादी में जरूर कोई अच्छी बात होगी। पर हमें इससे क्या मिलना-मिलाना है? आप जैसे पढ़े-लिखे लोगों को अंग्रेजोंवाली नौकरियाँ मिल जाएँगी। हमें क्या और जमीनें मिलेंगी? और भैंसें मिलेंगी?"
"नहीं," मुस्लिम ने कहा, "आजादी तो उन्हीं पढ़े-लिखे लोगों के लिए है जिन्होंने उसके लिए लड़ाई लड़ी। हम तो पहले अंग्रेजों के गुलाम थे, अब पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानियों या पाकिस्तानियों के होंगे?"
इकबाल उनके इस विश्लेषण से काँप उठा।
"जो आप लोग कहते हैं; वह बिलकुल ठीक है," उसने सहृदयता से हामी भरते हुए कहा, "अगर आप किसान और मजदूर आजादी से कुछ चाहते हैं तो आपको एकजुट होकर लड़ना होगा। कांग्रेसी सरकार के इस बरगद को उखाड़ना होगा। जमींदारों और राजों-रजवाड़ों को मिटाना होगा। तभी आजादी का आप लोगों के लिए कोई मतलब होगा। आपको ज्यादा जमीनें मिलेंगी और पैसे मिलेंगे। और आप पर कोई कर्ज भी नहीं चढ़ेगा।"
मीत सिंह ने फिर बीच में टोका, "यही तो वह भी कह रहा था। अरे वही...लम्बरदारा! क्या नाम था उसका? कुछ कामरेड...! बाबू साहब। आप भी क्या कामरेड हो?"
"नहीं।"
"चलो अच्छा हुआ। वह कामरेड तो भगवान में भी विश्वास नहीं करता था। कह रहा था कि अगर उसकी पार्टी की सरकार बनी तो वे तरन-तारन के पवित्र तालाब को खाली करके इसमें धान बोएँगे। कहता था, उससे ज्यादा फायदा होगा।"
"यह सब फालतू की बकवास है।" इकबाल ने कहा और मन-ही-मन सोचा कि काश मीत सिंह को उस कामरेड का नाम याद होता। उसकी तो हेड-क्वार्टर में रिपोर्ट करके सबक सिखाना चाहिए था। प्रत्यक्ष में वह उनसे बोला, "अगर हमें ऊपरवाले में विश्वास न हो तो हममें और पशुओं में फर्क ही क्या?"
मुस्लिम ने गम्भीर होते हुए कहा, "धार्मिक आदमी की तो सारी दुनिया कद्र करती है। गांधी को देखो! मैंने सुना है कि वह अपने वेदशास्त्रों' के साथ-साथ कुरान और अंजील भी पढ़ते हैं। दुनिया के चारों कोने में उनकी धूम मची है। गांधी की प्रार्थना सभा की एक फोटो मैंने अखबार में देखी थी। उसमें बहुत सारे अंग्रेज आदमी और औरतें भी पालथी मारकर बैठे थे। एक अंग्रेज़ लड़की आँखें बन्द किए बैठी थी। कहते हैं वह बड़े लाट साहब की बेटी है। मीत सिंह! देखा तुमने, अंग्रेज तक धार्मिक आदमी की कद्र करते हैं।"
"हाँ, चचा! आपकी बात सोलह आने सच है," मीत सिंह ने अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए हामी भरी।
इकबाल को गुस्सा चढ़ने लगा था, "उनकी तो नस्ल ही चार सौ बीसों की है," उसने जोर देकर कहा, "उनकी बात पर भरोसा मत करो!"
एक बार फिर उसने महसूस किया कि उसका तीर खाली गया। लेकिन फिर भी सच्ची बात यही थी कि वह न तो कभी लॉर्ड साहब की बेटी का प्रेस-फोटोग्राफरों के फायदे के लिए आँखें बन्द किए पालथी मारकर प्रार्थना-सभा में बैठना सह पाया था, न ही हिन्दुस्तानी बोलनेवाले, किंग जॉर्ज के भतीजे, स्वयं बड़े लॉर्ड साहब का हिन्दुस्तान के प्रति मिशनरियों का-सा प्रेमभाव। उसने कहा-
"मैं उनके मुल्क में कई बार रहकर आया हूँ। इसमें कोई शक नहीं कि वे इनसान बहुत अच्छे हैं, लेकिन राजनीतिक नजरिए से देखा जाए तो वे दुनिया के सबसे बड़े चार सौ बीस हैं। अगर वे ऐसे ही ईमानदार होते तो दुनिया के कोने-कोने में उनका राज न फैला होता।" इकबाल ने उन्हें समझाते हुए कहा। फिर सोचा कि अब बात बदलनी चाहिए, "खैर, उन सब बातों का अभी कोई तुक नहीं। सोचने की बात तो यह है कि अब क्या होना चाहिए।"
लम्बरदार ने भी जरा तुर्शी से जवाब दिया, "हम जानते हैं, अब क्या हो रहा है, मुल्क में तबाही की हवाएँ चल रही हैं। चारों तरफ एक ही शोर है-मारो, मारो! बस जिन्हें कोई आजादी है तो वे हैं-चोर, डाकू और गलाकाटू लोग।" फिर तनिक हौले से बोला, "हम तो अंग्रेजों के नीचे ही भले थे। कम-से-कम कोई हिफाजत तो थी जान-माल की।" (पाकिस्तान मेल- खुशवंत सिंह)
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