नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

मेरे स्पिक मैके दिन- अशोक जमनानी

 मैंने बहुत आश्चर्य के साथ पूछा कि जब वे होशंगाबाद आईं थीं तब उन्हें अपनी बीमारी के बारे में पता था? रघुनाथ जी ने कहा कि हाँ उसे सब पता था। मैंने तुरंत कहा कि फिर वे दो-तीन घंटे के कार्यक्रम क्यों दे रहीं थीं? मेरी बात सुनकर रघुनाथ जी ने जो उत्तर दिया उसे मैं कभी नहीं भूल सकता। उन्होंने कहा :' संजुक्ता कहती थी कि जब तक नृत्य है तब तक मृत्यु कहां! वो कहती थी कि नृत्य से अलग होना ही असल में मृत्यु होगी। बस इसीलिए वो नृत्य करती रही और सचमुच कुछ दिन नृत्य नहीं किया तो जीवन ने भी साथ छोड़ दिया।' वे रो पड़े और मैं फिर कुछ न कह पाया। मैंने उन्हें सहज देखा तो पूछ ही बैठा कि बुधनी में इतनी परेशानी के बाद भी उन्होंने दो घंटे क्यों बजाया? पंडित जी ने मुस्कुराकर जो कहा वह हमेशा याद आता रहता है। उन्होंने कहा : 'लोग हमारी परेशानी सुनने नहीं आते वे हमारा संगीत सुनने आते हैं। मंच से अपनी परेशानी नहीं अपनी कला को बांटना होता है। वो भी इस तरह कि हमारी कला सबके दिल में एक याद की तरह बस जाए। 

कलाकार चाहे कितनी ही तकलीफ में क्यों न हो उसे अपने श्रोताओं को आनंद ही देना होता है। जिस दिन कार्यक्रम था पंडित जी उसी दिन सुबह की फ्लाइट से भोपाल आए और लगभग दस बजे होशंगाबाद आ गए। तबले पर संगत के लिए बनारस से सुप्रसिद्ध तबला वादक राम कुमार मिश्रा जी आ रहे थे लेकिन सुबह आने वाली उनकी ट्रेन लेट होते चली गई और जब वे आए तब शाम के पाँच बज चुके थे। सात बजे कार्यक्रम शुरू होना था और हमें एक सौ बीस किलोमीटर की यात्रा करके पचमढ़ी पहुँचना था। राम कुमार जी को बस एक चाय पिलाकर हम चल पड़े। मालूम था कि बहुत तेज चलेंगे तब भी पहाड़ी रास्ता पहुँचते-पहुँचते आठ बजा ही देगा। मैंने पचमढ़ी सूचना भेज दी थी कि हम आठ बजे तक पहुँचेंगे। पिपरिया के बाद जब पहाड़ी रास्ता शुरू हुआ तो लगा कि अभी परीक्षा का एक और हिस्सा बाकी है। राम कुमार जी को अचानक उल्टियां होना शुरू हुईं और बदन बुखार से तपने लगा। हम सभी घबरा गए। कुछ देर के लिए गाड़ी रोकी। पंडित जी के पास कुछ दवाएँ थीं और मेरे पास प्रार्थना। 

थोड़ी देर बाद लगा कि राम कुमार जी की तबीयत कुछ ठीक है तो मैंने बहुत संकोच के साथ उनसे पूछा कि क्या हम चलें? उन्होंने कहा कि हाँ चलें लेकिन गाड़ी तेज न चलाएं। हम चल पड़े और जब पचमढ़ी पहुँचे तो नौ बज रहे थे। खुला मैदान, दिसंबर की तेज ठंड और उतनी ही तेज ठंडी हवा। पंडाल में कई अलाव जल रहे थे। मंच पर भी एक अलाव था। पंडित जी ने साज निकाला और राम कुमार जी ने भी तबला मिलाना शुरू किया। ठंड इतनी तीखी थी कि मैं जैकिट की जेब से हाथ नहीं निकाल पा रहा था और लगातार यही सोच रहा था कि पंडित जी और अस्वस्थ राम कुमार जी कैसे कार्यक्रम दे पाएंगे। मैं सोच ही रहा था कि पंडित जी ने माइक संभाल लिया। देरी से आने के लिए खेद जताकर उन्होंने सवाल उछाला कि क्या आप लोगों ने कभी शास्त्रीय संगीत सुना है। 

मैदान में बैठे अधिकांश लोग हँसे और आगे बैठे कुछ लोगों ने साफ-साफ़ कह दिया कि नहीं सुना। पंडित जी ने कहा कि आप मुझे पाँच मिनिट दीजिए मैं आलाप बजाऊंगा और उसके बाद जो बजेगा वो शास्त्रीय संगीत तो होगा लेकिन आपके दिल में एक यादगार बन कर हमेशा रहेगा। लोगों ने तालियां बजाईं और मोहन वीणा के तारों पर आलाप ने उतरना आरंभ किया। दो-तीन मिनिट बीते तो आलाप की गति जोड़ झाले की ओर बढ़ी और फिर पचमढ़ी की उन वादियों में संगीत का एक सम्मोहन जागा और देखते ही देखते सब के सब उस सम्मोहन में खोते चले गए। कुछ देर पहले जो राम कुमार जी ठीक से बैठ भी नहीं पा रहे थे उनकी उंगलियां तबले पर जादू रच रहीं थीं और सुनने वाले जैसे हर एक तिहाई के बाद आते सम को तालियों से भर देना चाहते थे। 

अद्भुत दृश्य था। कार्यक्रम समाप्त हुआ तो श्रोता बहुत देर तक खड़े होकर तालियां बजाते रहे। मेरे लिए यह एक बिलकुल भिन्न अनुभव था। कोई कलाकार भीड़ को शास्त्रीय संगीत से इस तरह जोड़ सकता है यह तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था। लेकिन जो विश्व मोहन हैं उनके लिए क्या असंभव है। मैंने पंडित जी से कहा कि आपकी मोहन वीणा असल में मोहिनी वीणा है। कार्यक्रम की सफलता राम कुमार जी के चेहरे पर भी थी और हम भूल चुके थे कि कुछ वक्त पहले वे कितने अस्वस्थ थे। वापस होशंगाबाद लौटे तो रात के दो बज रहे थे। थोड़ा-सा विश्राम करके पंडित जी सुबह की फ्लाइट के लिए भोपाल चले गए। 

मैं कला को समर्पित एक महान साधक की अनथक यात्रा को लेकर अब भी हैरान होता रहता हूँ। शायद ही कोई कलाकार इतनी यात्राएँ कर पाए। बिना रुके एक के बाद दूसरी यात्रा। पंडित जी के वादन में गति चमत्कार रचती है लेकिन उनकी यात्राओं की गति भी चमत्कार ही रचती है। पंडित विश्व मोहन भट्ट ने पूरी दुनिया में भारतीय संगीत के जादू से लोगों को जोड़ने में सफल हुए हैं तो यह उनकी साधना के साथ साथ उनकी निरंतर चलती यात्राओं और अथक मेहनत का ही परिणाम है। डॉ. किरण सेठ से मेरी पहली मुलाकात को याद करता हूँ तो हमेशा एक आदर्श जगमगा उठता है। 

राहुल ने ही मुझे बताया था कि मध्य प्रदेश का राज्य अधिवेशन एमएसीटी में होने वाला और उसमें डॉ सेठ भी आएंगे। उनके बारे में इतना कुछ सुन चुका था कि सारे काम छोड़कर भोपाल चला गया। एमएसीटी के वीआईपी गेस्ट हाउस में हम सभी को मिलना था। मैं कुछ समय पहले ही पहुँच गया था लेकिन कई लोग तो मुझसे भी पहले आ चुके थे। सभागार में काफी हलचल थी। मैं चप्पलें उतारकर भीतर जाने लगा तो देखा कि एक दुबले पतले व्यक्ति जिनकी दाढ़ी बढ़ी हुई है वे सभी की चप्पलों और जूतों को को एक व्यवस्थित क्रम में जमा रहे थे। गुरुद्वारों में इस तरह की सेवा करते लोगों को देखा था इसलिये लगा शायद यहाँ भी कोई टोकन मिलेगा। लेकिन उनके पास कोई टोकन नहीं था। वे तो बस इतने सलीके से चप्पलों को जमा रहे थे कि मैं कुछ देर तक उन्हें देखता रहा फिर मैं भीतर चला गया। मैं स्पिक मैके में नया था। 

राहुल ने कुछ लोगों से मिलवाया फिर देखा कि वही व्यक्ति जो दरवाजे पर चप्पलें जमा रहे थे भीतर आ रहे हैं। सब लोग खड़े हो गए। कुछ ने पाँव छुए कुछ ने हाथ जोड़कर स्वागत किया। मैंने राहुल से पूछा कि ये कौन हैं तो राहुल ने कहा कि यही तो डॉ. किरण सेठ हैं। मैं बेहद हैरान था। राहुल ने मुझे उनसे मिलवाया तो वे मुस्कराए। शायद वे समझ गए थे कि मैं क्या सोच रहा हूँ। उन्होंने कहा कि हम एक सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा हैं। यदि हम अपनी चप्पलों और जूतों को इतने खराब ढंग से बाहर फैलाकर आएंगे तो जो लोग हमसे मिलने आएंगे वे कैसे यकीन करेंगे कि हम संस्कृति की बात कर रहे हैं।  

असद अली खां साहब अपने खानदान की ग्यारहवीं पीढ़ी के कलाकार थे और यह सिलसिला इतना लंबा चला तो उसका श्रेय वे इन कद्रदानों को देना कभी नहीं भूलते थे। दोपहर के भोजन के बाद वे आराम करने चले गए और शाम को कार्यक्रम शुरु हुआ तो वे मंच पर देर तक अपने साज को मिलाते रहे। कार्यक्रम में आए युवाओं का धैर्य इतना सहन कैसे करता। आधे से अधिक युवा श्रोता इस बीच उठकर बाहर चले गए। हमें लगा कि कुछ देर और हुई तो पूरा सभागार खाली हो जायेगा। लेकिन साज मिल चुका था और खां साहब ने उसे पहन लिया तो उसके बाद उन्होंने कहा कि आइए मैं आपको ॐ से मिलवाता हूँ। मंद्र सप्तक के सुरों में ॐकार गूँजा तो पूरे सभागार में एक अनोखी शांति छा गई जो युवा बाहर चहलकदमी कर रहे थे वे भी भीतर आ गए तो कुछ देर पहले खाली-खाली लग रहा सभागार न केवल पूरा भर गया बल्कि बहुत से युवा साथी बाहर खड़े होकर भी सुन रहे थे। खां साहब ॐ को अलग-अलग ढंग से सुना रहे थे। 

यह राग का आलप भी था लेकिन गूँज रहा था केवल और केवल ॐॐॐ। मैंने कितने कार्यक्रम सुने देखे हैं लेकिन उस दिन जैसी शांति फिर कभी नहीं उतरी। युवा श्रोता पूरी तन्मयता से रुद्रवीणा जैसे दुर्लभ वाद्य के संगीत से जुड़े हुए थे और मुझे दोपहर में खां साहब की कही बात याद आ रही थी कि सच्चे सुर का दौर कभी नहीं बीतता। ॐ ध्वनि ने विस्तार पाया और फिर आलाप से लेकर झाले तक युवा श्रोता मंत्रमुग्ध सुनते रहे। यह बेहद खास बात थी कि लयकारी का अतिरेक नहीं था तब भी युवा आंनदित थे नहीं तो पूर्व के कार्यक्रमों में उनका आनंद तभी मुखर होता था जब गति ताबड़तोड़ हो जाती थी। (मेरे स्पिक मैके दिन- अशोक जमनानी)



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