अभी कुछ देर पहले जब उपेन्द्र बाहर जाने की तैयारी कर रहा था, तब विभा उससे कहा था,
"मुझे रुपए चाहिए। त्योहार नजदीक है। लड़की के घर कुछ भेजना होगा। मनोज के लिए दवाई भी चाहिए।"
उपेन्द्र ने सुन लिया था और देखकर कहा था.
"कोशिश करूंगा कि एक टकसाल खोल लूं।"
विभा उस मजाक का अर्थ समझती है। पैसा उसके पास नहीं है। न हो, उससे क्या? उसे तो चाहिए। इस बात को वह भी जानता हैं, लेकिन शायद समस्या का सामना करने का साहस उसमें नहीं है। इसलिए वह ऐसी अर्थहीन बात कहता है। विभा ने उसी लहजे में उत्तर दिया था,
"तो खोल डालिए न, हमारी सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी।"
परिहास भी पलायन का एक रूप हैं। असल में वे दोनों ही एक-दूसरे से बचने के प्रयत्न में रहते थे। वे जानते हैं कि असम्भव है, लेकिन जो असम्भव को साधना चाहता है, उसी को मनीषियों ने मनुष्य कहा है। उपेन्द्र विभा की बात सुनकर मुसकरा आया था। कहा था,
"चिन्ता क्यों करती हो, समस्याएं आती ही इसलिए हैं कि वे हल हों। हमारी समस्याओं का हल भी निकल आएगा। आज पैसा नहीं है तो क्या हल भी नहीं होगा? उसे होना होगा।"
उत्तर देने के लिए विभा के पास भी बहुत कुछ था, लेकिन वह जानती धी कि यह सब झूठ है और झूठ के सहारे आदमी कब तक जी सकता है? झूठ के सहारे आदमी जी नहीं सकता। सच का वह सामना करना नहीं चाहता। तब आखिर जीने की राह कौन-सी है? और अगर वह जीता है तो कैसे जीता है? उपेन्द्र लेखक है। कहने योग्य काफी यश उसने अर्जित किया है, लेकिन यश क्षुधा का हविष्य नहीं हो सकता। हविष्य हो सकते हैं पैसे, और मुसीबत यह है कि लेखक उपेन्द्र मान बैठा कि वह पैसों के लिए नहीं लिखता। वह लेखन को व्यवसाय नहीं बना सकता। वह टूट जाएगा, लेकिन अपनी चरित्र-निष्ठा को समझौते की कसौटी पर नहीं कसेगा। सहसा विभा सुनती है, कोई उसे पुकार रहा है। वह उसके बेटे की आवाज है। वह आवाज उसे कंपा देती है, क्योंकि उसके पास भी एक समस्या है। उसे कल ढाई सौ रुपए चाहिए। हर महीने चाहिए। वह इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ता है। आज उसने अपने पिता से कहा था,
"पिताजी, मैं परसों जा रहा हूं। कल मुझे रुपए मिल जाने चाहिए।"
बिना माथे पर कोई शिकन डाले, उपेन्द्र ने धीरे से उत्तर दिया था, "इस बारे में कल बात करना।" बेटा बोला था, "बात क्या करनी है, मुझे रुपए चाहिए।"
"हां, हां, सो तो ठीक है।"
"तो फिर हो जाएंगे न?"
"हां, हां, उन्हें होना होगा। तुम चिन्ता मत करो।"
विभा की तरह विभा का बेटा भी जानता है कि उसके पिता के पास रुपयों का प्रबन्ध नहीं है। इसलिए वह चेतावनी देता है कि प्रबन्ध होना चाहिए, लेकिन उपेन्द्र है कि पूर्ण निश्चित । विभा जानती है कि यह निश्चितता एक धोखा है। ऊपर से वह जितना शान्त है, अन्दर से उतना ही संकट से आक्रान्त...। बेटा फिर पुकारता है,
"मां, तुम अन्दर हो क्या?"
विभा उत्तर देती है,
"हां बेटा, यह रही गुसलखाने में।"
पास आकर वह मुसकराता है,
"तो तुम्हारा धोबी-घाट फिर खुल गया। कितने कपड़े धोती है, धोबी को क्यों नहीं देती?"
"धोबी कपड़े फाड़ डालता है।" दो
नों जानते हैं कि यह उत्तर झूठ है, लेकिन विभा इसे सही प्रमाणित करने के लिए तर्क का मुखौटा लगा लेती है। बेटा यकायक निरस्त्र कहता है,
"अच्छा मां, तुम्हारी ही बात ठीक है, लेकिन मेरे पैसों का क्या होगा? अगले महीने मुझे कपड़े भी बनवाने हैं।"
"हां, कपड़े तो सभी को बनवाने हैं।"
फिर वही पलायनवादी उत्तर। आदमी जानबूझकर क्यों अपने को छलना चाहता है? लेकिन इस बार बेटे का धीरज छूट जाता है। आवेश में आकर कहता है,
"पिताजी यह सबकुछ समझते क्यों नहीं? क्यों वह पैसा पैदा करना नहीं चाहते? क्यों उन्होंने बार-बार नौकरी छोड़ी? क्यों वे आज डेढ़-दो हजार रुपए महीना नहीं कमा रहे होते? तब हम लोग भी इन्सान की तरह जी सकते थे। और कई ऐसे लेखक भी तो हैं, जो हजारों रुपए महीना कमाते हैं।"
विभा धीरे से उत्तर देती है, "बेटे, तुम्हारे पिता पैसे को नहीं, आदर्श को प्यार करते हैं।"
बेटा यकायक चीख-सा उठता है, "आदर्श, आदर्श, आदर्शों का युग कभी का बीत गया। यदि उन्हें यह भ्रम पालना ही था तो उन्होंने गृहस्थी क्यों जमाई? आदर्श के लिए स्वयं कष्ट उठा सकते हैं, दूसरों को कष्ट उठाने के लिए विवश करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं।"
विभा अपने बेटे को जड़वत् देखती रह जाती है। वह उसका ही तो बेटा है। वह उसके पिता को, जो उसका अपना पिता है, किस तरह लांछित करने पर तुल आया है, लेकिन अपने अन्तरतम में वह भी अनुभव करती है कि वह बहुत गलत नहीं है। शायद वह शब्दों का ठीक-ठीक प्रयोग नहीं कर पाता। कुछ दूसरे ओढ़े हुए शब्दों में वह भी तो यही कहना चाहती रही है। यह दूसरी बात है कि अपने को छिपाने के लिए उसके पास कई मुखौटे हैं और बेटा साफगोई है। साफगोई क्या सच्चाई नहीं है? सच्चाई जिन्दगी का वह ऊबड़-खाबड़ रास्ता है, जिसे छिपाया नहीं जा सकता, लेकिन आज की सबसे बड़ी कला है, छिपाना। किसी तरह अपने-आपको शान्त करते हुए वह बेटे से कहती है,
"तुम्हारे पिता ने जब कहा है कि पैसे मिल जाएंगे, तो फिर तुम क्यों ऐसी बातें कहते हो, जिनसे हमें दुःख पहुंचता है?"
(चंद्रलोक की यात्रा- विष्णु प्रभाकर)
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