इसके बाद दोनों प्राणी आंखों ही आंखों में हंसते हैं। अनूपा पेड़ की घनी छाया में कुटिया के द्वार पर पड़ी छोटी-सी खटिया पर लल्लू को रासुलाकर, पेड़ की डाल में भोजन का कटोरदान लटकाकर पति को सहायता देने काछा कसकर पहुंच जाती है।
आनंद और उल्लास से भरे हुए ये दोपहर कर तक बहुत-सा काम कर डालते हैं। इसके बाद जब वे कुटिया के पास आकर ती सुख की नींद सो रहे लल्लू को दोनों आंख भरकर देखते हैं, तो मानों अपनी जी, आत्मा की जागृत् ज्योति को देखते हैं। कटोरदान खुलता है और दोनों प्राणी नों वह अमृत के समान भोजन आनंद से खाकर शीतल, ताज़ा पानी पीकर तृप्त ने हो जाते हैं। अनूपा समझती है- मेरा पति है, पुत्र है, खेत है, घर है, हल से हैं, बैल हैं और गाय है; जगत् में मुझ-सा सुखी कौन !
रघुनाथ समझता है-मेरी अनूपा है, लल्लू है, खेत है, घर है, बैल है, हल है; मेरे बराबर राजा कौन ! जगत् के प्रांगण में उन हरे-भरे, शांत और एकांत खेतों के दूसरी ओर नगर बसे हैं। वहां बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं हैं। वहां मोम की मूर्ति-सी रमणियां रहती हैं, जिनके पांव मखमल पर छिलते हैं। वहां संपदा, सोना, रत्न की बिखर रहे हैं। वहां ऐश्वर्य, सम्पत्ति और सौंदर्य का मेह बरस रहा है। पर रघुनाथ ने यह कभी नहीं जाना, अनूपा ने भी नहीं। वे न कहीं जाते, न आते । ; उनकी सब सामाजिक और आत्मिक तृप्ति वहीं हो जाती थी। वही छोटा-सा संसार उनका विश्व और वही पति-पत्नी, पुत्र, हल, बैल, गाय, घर, खेत विभूति थी। (आचार्य चतुरसेन की श्रेष्ठ कहानियां)
#साहित्य_की_सोहबत #पढ़ेंगे_तो_सीखेंगे
#हिंदीसाहित्य #साहित्य #कृष्णधरशर्मा
Samajkibaat समाज
की बात
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें