चुनाव का आवेश शहर भर में फैल रहा था। कांग्रेस के चोटी के लीडरों को बम्बई में बुलाकर स्थान-स्थान पर उनके व्याख्यान कराये जा रहे थे। मुस्लिम क्षेत्र के चोटों के लिए कांग्रेस की लीग से टक्कर थी, परन्तु कांग्रेस के नेता लीग की निन्दा से अधिक क्रोध प्रकट कर रहे थे कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति, क्योंकि लीग की पाकिस्तान की माँग के सिद्धान्त का समर्थन कम्युनिस्ट १९४२ से कर रहे थे।
कम्युनिस्टों को देशद्रोही, गद्दार और मुस्लिम लीग का पिट्टू कहा जाता। चौपाटी के मैदान में होने वाले इन व्याख्यानों से उत्तेजित जनता कम्युनिस्टों को गालियाँ देती हुई जाती। उत्तेजित जनता चौपाटी के समीप सैण्टहर्स्ट रोड पर कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय दफ्तर पर कई बार ईंट-पत्थरों से हमला कर चुकी थी। इन परिस्थितियों में गीता भी मन ही मन उत्तेजित हो जाती। कम्युनिस्टों की स्थिति बम्बई के भद्र श्रेणी के इलाकों की अपेक्षा मजदूर क्षेत्रों में मजबूत थी। वहाँ उन्हें पिंटने का डर न था।
गीता मन में ग्लानि अनुभव करने लगी-ऐसी अवस्था में शहर का काम छोड़, मजदूर क्षेत्र में छिपने की कोशिश करना कायरता नहीं तो क्या है ? तेईस जनवरी को ट्राम और बस की हड़ताल के कारण वह परेल न जा सकती थी। चौबीस को सुबह ही उसने समाचार पत्र में कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय दफ्तर पर दंगे का संक्षिप्त समाचार पढ़ा। उसी समय उठकर वह सैण्डहर्स्ट रोड की ओर चल दी। जो कुछ उसने पढ़ा था, उससे बहुत अधिक देखा मुख्य दरवाजे के एक ओर राशन की और दूसरी ओर पार्टी की पुस्तकों की दुकानें जला दी गई थीं। तीसरी मंजिल तक सब जगह आग के चिह्न थे।
खिड़कियों के काँच टूटकर, वे दाँत-टूटे मुख की भाँति विरूप लग रही थीं। दीवारों पर जगह-जगह आग की कालिख थी और कई जगह आग बुझाने के इंजन के पंपों से वह कालिख दीवारों पर बह गई थी और जान पड़ता था, मार खाकर मकान फूट-फूट कर रो दिया हो। गीता ने सुना, साठ साथी बुरी तरह जख्मी हुए थे। किसी की जबडे की हड्डी टूटी थी, किसी का माथा फटा था और कई लोगों के हाथ-पाँव टूट गये थे। ज्यादा नुकसान प्रेस में हुआ था। उसने प्रेस में देखा-बड़ी-बड़ी मशीनें टूटी पड़ी थीं। सुना, एक लाख का नुकसान हुआ था। गीता के मन ने कहा-कितने श्रम से माँगा हुआ रुपया! मन का आवेश वश में रखने के लिए वह बोल न पाई और होंठ दवाये लौट आई। उसका मन प्रतिहिंसा से जल रहा था। ये खद्दर के सफेद-सफेद कपड़े पहनकर अहिंसा का उपदेश देने वाले बगुला भगत पार्टी को चाहिए, अपने मजदूर साथियों की टोलियाँ ले इन सबके गँजे सिर मुड़वा दे और इनके महलों और दफ्तरों में आग लगवा दे !
दूसरे दिन संध्या वह पार्टी मेम्बरों और सहानुभूति रखने वालों की सभा में परेल गई। सभा में घटना का वर्णन ब्योरे से सुनाया गया। कई साथी उसी की भाँति प्रतिहिंसा की आग से जल रहे थे। उन्होंने खड़े होकर कम्युनिस्टों को गद्दार कहने वाले कांग्रेसी नेताओं को इस घटना का जिम्मेदार ठहरा उन्हें भला-बुरा कहा और भविष्य में बदला लेने के कार्यक्रम पर जोर दिया। गीता ने उनका समर्थन किया।
प्रान्तीय कमेटी के तीन मेम्बर भी उपस्थित थे। कामरेड हारे ने अपने ढीले चश्मे को सँभालकर अंग्रेजी में कहा, "मार-पीट से बदला लेने की बात सोचना मूर्खता है। यदि हम ऐसा करेंगे तो शरारत करने वालों की और अंग्रेज सरकार की मंशा पूरी करेंगे। जिस भीड़ ने पार्टी पर हमला किया, उसमें सभी तरह के आदमी थे। कौन कह सकता है इस अवसर से लाभ उठाने के लिए मजदूर श्रेणी के विरोधियों ने ही इस उत्पात को विकट रूप न दिया हो? हमें खुद जाहिल नहीं बनना, जाहिलों की आँख खोलनी है।" उँगली उठाकर हारे ने पूछा, "अगर हम बदला लेंगे तो क्या होगा ? होगा यह कि कांग्रेस वाले हमसे बदला लेंगे और हम फिर उनसे बदला लेंगे।
अंग्रेजों की पुलिस हम लोगों में शान्ति स्थापित कराने आयेगी। पुलिस से कांग्रेस और हम दोनों ही मार खायेंगे! यही चाहते हो तुम ? तुम्हें अंग्रेजों की पुलिस पर कांग्रेस से ज्यादा विश्वास है? आज कांग्रेस और लीग बेवकूफी करके अंग्रेजों को पंच बना रहे हैं; वही बात हम करें? कांग्रेस है क्या ? कल हम-तुम कांग्रेस के मेम्बर थे। हमारे मेम्बरी के प्रतिज्ञा पत्र में कांग्रेस मेम्बर होना जरूरी शर्त थी। जितने कांग्रेस मेम्बर हमने बनाए हैं, किसी दूसरी कांग्रेस पार्टी ने नहीं बनाए। हम कांग्रेस को समझा सकते हैं, उसे तोड़ नहीं सकते।" गीता और उसकी तरह सोचने वाले कामरेडों पर ठंडा पानी पड़ गया।
प्रान्तीय सेक्रेटरी ने उठकर अपने वक्तव्य में प्रेस को फिर जल्दी से जल्दी ठीक करने के लिए फंड के लिए अपील की। कितने ही साथी मेम्बरों ने अपना एक-एक मास का पूरा वेतन दे दिया। कई मजदूरों ने महीने-भर की मजदूरी देने का वायदा किया और कई साथियों ने अपने पास से रकमें दीं। गीता के पास रुपया न था। उसने गले से लाकेट उतारकर दे दिया। दूसरी लड़की ने चूड़ियाँ दे दीं। पद्मा मालेकर ने अपना एकमात्र शेष जेवर, सुहाग की कंठी उतार दी। सेक्रेटरी को संतोष नहीं हुआ। उसने कहा, "यह सब आपका अपना रुपया है। यह दे देना कोई बात नहीं। यह बताइए, आप जनता से माँगकर क्या लायेंगे? जनता को कैसे समझायेंगे कि यह आपस में सिर फोड़ने की नीति स्वतन्त्रता और देशभक्ति का मार्ग नहीं, गुलामी और देशद्रोह का मार्ग है? पार्टी के प्रति जनता का भ्रम आप कैसे दूर करेंगे?" साथियों ने रकमें बोलनी शुरू की।
गीता ने दो सौ रुपया इकट्ठा करने के प्रण के साथ भविष्य में सम्पूर्ण समय पार्टी के काम में देने का वायदा किया। एक घण्टे में साढ़े छः हजार। प्रान्तीय सेक्रेटरी ने सूची पढ़कर सुनाई और फिर गम्भीरता से कहा, "साढ़े छः हजार रुपया कुछ भी नहीं है, परन्तु मुझे संतोष है कि इन तीन सौ की भीड़ में अधिकांश मजदूर, विद्यार्थी और पूरा समय पार्टी को देने वाले लोग हैं, जिनके पास आमदनी का कोई साधन नहीं है। यहाँ सम्भवतः दो-चार को छोड़कर कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो तीन सौ रुपया माहवार भी कमाता हो। फिर भी हम साढ़े छः हजार वायदों और नकद के रूप में इकट्ठा कर सके हैं यह हमारे साथियों के दृढ़ निश्चय का प्रमाण है।"
सेक्रेटरी ने गीता का लाकेट, अनीमा की चूड़ियाँ, मोजीवाला के कान के काँटे और पद्मा की कण्ठी हाथ में लेकर पूछा, "गर्ल्स कामरेड्स, ये गहने आपने दिये हैं। आप घर जाकर क्या उत्तर देंगी ?" अनीमा ने उत्तर दिया, "कह दूँगी खो गये।" गीता ने उत्तर दिया, "मैं कह दूँगी पार्टी को दे दिया है। जो होगा देखा जायेगा।" मोजीवाला मे भी गीता का समर्थन किया। सेक्रेटरी ने अनीमा की चूड़ियाँ लौटाने के लिये उसकी ओर बढ़ा दीं, "अगर तुम्हें घर में सच बोलने का साहस नहीं है तो ये चूड़ियाँ हम नहीं लेंगे।" अनीमा का चेहरा लाल हो गया। उसने खड़ी होकर कहा, "मैं घर में ठीक बात कह दूँगी।" और बैठ गई। सब साथी खड़े हो गये और मुट्ठियाँ तानकर अनेक प्रकार के पुरुष और कोमल स्वरों से योग के, कम्युनिस्टों का अन्तर्राष्ट्रीय गीत गाया - उठ जाग ऐ भूखे बन्दी, अब खींचो लाल तलवार कब तक सहोगे भाई, जालिम का अत्याचार तुम्हारे रक्त से रंजित क्रन्दन, अव दस दिश लाया रंग ये सौ बरस के बन्धन, एक साथ करेंगे भंग यह अंतिम जंग है, जिसको जीतेंगे हम एक साथ गाओ इंटरनेशनल अब स्वतन्त्रता का गान।
पुत्तूलाल, अशफाक पंजाबी, रेवती और सुकुल को अपनी मोटर में लेकर भावरिया घुड़दौड़ से लौट रहा था। भावरिया ने दाँव जीता था इसलिये विरेंशीरोल बार में रुककर उन लोगों ने एक-एक पेग ह्विस्की ली। उस जगह की चुप्पी और कायदा इन लोगों को भाया नहीं। "यार, यह भी क्या जगह है! ऐसा मालूम होता है जैसे हस्पताल में आ गये हों। न बातचीत न हू-हबक!" पुत्तूलाल बोला। "हाँ लाला," पंजाबी ने समर्थन किया, "शराब क्या है, जैसे दवाई पी रहे हों! सेठ, अपने को तो ठरें में ही मजा आता है।" आस्तीनें चढ़ाते हुए उसने कहा, "असली चीज तो है, गाँव की खिंची हुई... क्या कहने ! क्यों पंडित ?" भवें टेढ़ी कर उसने सुकुल को संबोधन किया। रेवती को चौपाटी के समीप काम था, इसलिए वे लोग उधर ही चले। प्रसंग था कि भावरिया की जीत मानने के लिये क्या शुगल हो। "यारो, फिल्म ही देख डालो!" पंजाबी ने प्रस्ताव किया। "अमा यार छोड़ो भी!" सुकुल ने टोक दिया। "मुजरा देखा जाए।" भावरिया मे सुझाया। (गीता-यशपाल)
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