उन्नीसवीं शताब्दी वह शताब्दी थी जिसने क्रान्ति के अग्रदूत, प्रबोधनकाल के दार्शनिकों के "तर्कबुद्धि के राज्य" और "शाश्वत न्याय" के आदर्शों को बूर्जा राज्य और बूर्जा न्याय की नग्न निर्लज्जताओं में रूपान्तरित होते देखा। इसकी पहली प्रतिक्रिया, कला-साहित्य की दुनिया में, स्वच्छन्दतावाद के रूप में सामने आई। प्रतिक्रियावादी स्वच्छन्दतावाद की धारा बूर्जा-पूर्व सामाजिक प्रणाली का प्रशस्ति-गान करती थी, जबकि बायरन और शेली जैसे क्रान्तिकारी स्वच्छन्दतावादी कवि पूँजीवाद को ठुकराकर भविष्य की ओर देखते थे। स्वच्छन्दतावाद की यह धारा अठारहवीं शताब्दी के प्रबोधनकालीन यथार्थवाद की तुलना में अत्यधिक गहन-गम्भीर थी। इसने मनुष्य के आन्तरिक जगत का चित्रण करने तथा व्यक्तित्वों के अन्तरविरोधों- विसंगतियों और उनकी "मनोगत अनन्तता" को उद्घाटित करने के साथ ही कला में इतिहासपरतावाद (हिस्टॉरिसिज्म) के सिद्धान्तों को समाविष्ट करने और समान्यजन के जीवन से निकट सम्बन्ध स्थापित करने का भी काम किया।
1830 के दशक में क्रान्तिकारी बूर्ध्वा यथार्थवाद का उत्कर्ष बाल्ज़ाक, स्टेण्ढाल, - डिकेन्स आदि की जिस आलोचनात्मक यथार्थवादी धारा के रूप में सामने आया, वह स्वच्छन्दतावाद के साथ जैविक रूप से जुड़ी हुई थी। बूर्जा क्रान्ति की परिणतियों से मोहभंग और पूँजीवादी व्यवस्था का नकार-ये प्रवृत्तियाँ दोनों ही धाराओं के मूल में थीं। कविता की विधा में स्वच्छन्दतावाद की धारा आगे तीन रूपों में विकसित हुई-(i) पुश्किन, लर्मन्तोव आदि रूसी कवियों और विभिन्न पूर्वी यूरोपीय कवियों की धारा (ii) वाल्ट व्हिटमैन की धारा तथा (iii) हाइने, वेयेर्थ, फैलिगराथ आदि प्रारम्भिक सर्वहारा कवियों की धारा।
आलोचनात्मक यथार्थवाद मुख्यतः उपन्यास विधा को अपनाकर आगे बढ़ा। अपनी अलग-अलग विशिष्टताओं के साथ महान यथार्थवादी उपन्यासकारों ने सम्पत्ति-स्वामित्व की दुनिया में संघर्षरत व्यक्तित्वों के बहिर्जगत एवं अन्तर्जगत को, व्यापारियों की धूर्तताओं एवं तिकड़मों को, गरीबों के दुर्भाग्य एवं उजरती गुलामी के नर्क को तथा आने-पाई के ठण्डे पानी में डूबते रागात्मक सम्बन्धों को जीवन्त रूप से और निर्मम वस्तुपरकता के साथ चित्रित किया। (मोपासां की संकलित कहानियाँ)
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