नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 7 सितंबर 2020

पीढियां-अमृतलाल नागर

 "उन्नीसवीं सदी के आरम्भिक काल तक अन्न उत्पादन ही हमारे देश का प्रमुख कार्य था। हमारे गांवों की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी उसी पर निर्भर थी। इसके अलावा कुछ वंश-परम्परागत जातीय पेशे और कुटीर उद्योग भी यहां आ पहुंचे। इन उद्योगों के मालिक भी अधिकतर अंग्रेज ही थे। उनकी मुनाफ़ाखोर प्रवृत्ति ने भारतीय ढांचे को ही बदल दिया। 

अच्छी-अच्छी जातियों के लोगों को जो कभी अपने हाथ से हल नहीं पकड़ते थे, बढ़ती मंहगाई की मजबूरी से मिलों में मजदूरी तलाश करनी पड़ी। उन्हें चौदह से सोलह घंटे काम करना पड़ता था। सवेरे मिल का भोंपू बजते ही मिलों में चले जाते और रात में ही वापस आ पाते थे। न खाने की मोहलत, न घड़ी-पल आराम करने की। पाखाने-पेशाब की हाजत लगे तो एक लोहे का वजनी नंबर लेकर जाना पड़ता था। मजदूरों के अंग्रेजी ढंग के बाल कटे देख लेने पर मास्टर उन्हें चमड़े के पट्टों से मारता था। इसके अलावा मजदूर परिवारों की बहू-बेटियों की इज्जत पर भी तरह-तरह के अमानुषिक हमले हुआ करते थे। (पीढियां-अमृतलाल नागर)



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