"उन्नीसवीं सदी के आरम्भिक काल तक अन्न उत्पादन ही हमारे देश का प्रमुख कार्य था। हमारे गांवों की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी उसी पर निर्भर थी। इसके अलावा कुछ वंश-परम्परागत जातीय पेशे और कुटीर उद्योग भी यहां आ पहुंचे। इन उद्योगों के मालिक भी अधिकतर अंग्रेज ही थे। उनकी मुनाफ़ाखोर प्रवृत्ति ने भारतीय ढांचे को ही बदल दिया।
अच्छी-अच्छी जातियों के लोगों को जो कभी अपने हाथ से हल नहीं पकड़ते थे, बढ़ती मंहगाई की मजबूरी से मिलों में मजदूरी तलाश करनी पड़ी। उन्हें चौदह से सोलह घंटे काम करना पड़ता था। सवेरे मिल का भोंपू बजते ही मिलों में चले जाते और रात में ही वापस आ पाते थे। न खाने की मोहलत, न घड़ी-पल आराम करने की। पाखाने-पेशाब की हाजत लगे तो एक लोहे का वजनी नंबर लेकर जाना पड़ता था। मजदूरों के अंग्रेजी ढंग के बाल कटे देख लेने पर मास्टर उन्हें चमड़े के पट्टों से मारता था। इसके अलावा मजदूर परिवारों की बहू-बेटियों की इज्जत पर भी तरह-तरह के अमानुषिक हमले हुआ करते थे। (पीढियां-अमृतलाल नागर)
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