नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

भाड़े के हत्यारे

मैं फौजी नहीं बनना चाहता था
पर दुर्भाग्य मैं फौजी बन गया
मुझे तो पश्चाताप होता था
अगर गलती से कहीं चींटी भी
मर गई मुझसे तो
यहां पर तो इंसानों को मारना पड़ता है
और ऐसे इंसानों को
जिन्हें ना कभी देखा है
न तो जिनसे दश्मनी है कोई
फिर भी मन को मारकर
मारना ही पड़ता है उन्हें
फौज में आने से पहले
इरादे बड़े अच्छे हुआ करते थे
कि करेंगे देश के लिये
कुछ ऐसा काम
कि दुनिया भर में फैले
हमारे भारत का नाम
पर फौज में आकर तो हम
मशीनी रोबोट होकर रह गये हैं
जिसे "फायर" शब्द सुनकर
चलानी होती हैं
अंधाधुंध गोलियां
बिना यह सोचे कि
इन गोलियों से कोई
अपराधी मर रहा है
या मर रहा है कोई निर्दोष
हमें तो कभी-कभी
उन्हें भी मारने को कहा जाता है
कि जिनसे हम कभी-कभी सीमा पर
दूर से ही हाथ हिलाकर
दुआ-सलाम भी कर लिया करते थे
दुख तब और भी ज्यादा लगता है
जब अपने कथित दुश्मन को मारने के लिये
कोई ठोस वजह या सार्थक उद्वेश्य
सामने नहीं होते
और तब मन में एक सवाल आता है
कि कहीं हम भी तो
भाड़े के हत्यारों की तरह तो नहीं
जो पैसा लेकर
किसी को भी मार देते हैं?(कृष्ण धर शर्मा,2011)

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