कथक शब्द की उत्पत्ति कथा
शब्द से हुई है, जिसका अर्थ एक
कहानी से है । कथाकार या कहानी सुनाने वाले वह लोग होते हैं, जो प्राय: दंतकथाओं, पौराणिक कथाओं
और महाकव्यों की उपकथाओं के विस्तृत आधार पर कहानियों का वर्णन करते हैं । यह एक
मौखिक परंपरा के रूप में शुरू हुआ । कथन को ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए इसमें
स्वांग और मुद्राएं कदाचित बाद में जोड़ी गईं । इस प्रकार वर्णनात्मक नृत्य के
एक सरल रूप का विकास हुआ और यह हमें आज कथक के रूप में दिखाई देने वाले इस नृत्य
के विकास के कारणों को भी उपलब्ध कराता है ।
वैष्णव धर्म, जो कि 15वीं सदी में
उत्तरी भारत में प्रचलित था और सिद्धांतत: भक्ति आंदोलन ने लयात्मक और संगीतात्मक
रूपों के एक सम्पूर्ण नव प्रसार के लिए सहयोग दिया । राधा-कृष्ण की विषय वस्तु
मीराबार्इ, सूरदास, नंददास और कृष्णदास
के कार्य के साथ बहुत प्रसिद्ध हुई । रास लीला की उत्पत्ति मुख्तय: बृज प्रदेश
(पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मथुरा) में एक महत्वपूर्ण विकास था । यह अपने आप में
संगीत, नृत्य और व्याख्या का संयोजन है । रासलीला
में नृत्य, जबकि मूल स्वांग का एक विस्तार था, जो वर्तमान परंपरागत नृत्य के साथ आसानी से मिश्रित है ।
मुगलों के आगमन के साथ इस
नृत्य को एक नया प्रोत्साहन मिला । मंदिर के आंगन से लेकर महल के दरबार तक एक
परिवर्तन ने अपना स्थान बनाया, जिसके कारण
प्रस्तुतिकरण में अनिवार्य परिवर्तन आए । हिन्दू और मुस्लिम, दोनों दरबारों में कथक उच्च शैली में उभरा और मनोरंजन के
एक मिश्रित रूप में विकसित हुआ । मुस्लिम वर्ग के अंतर्गत यहां नृत्य पर विशेष
जोर दिया गया और भाव ने इस नृत्य को सौंदर्यपूर्ण, प्रभावकारी तथा भावनात्मक (इंद्रिय) आयाम प्रदान किए ।
19वीं सदी में अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के
संरक्षण के तहत् कथक का स्वर्णिम युग देखने को मिलता है । उसने लखनऊ घराने को
अभिव्यक्ति तथा भाव पर उसके प्रभावशाली स्वरांकन सहित स्थापित किया । जयपुर
घराना अपनी लयकारी या लयात्मक प्रवीणता के लिए जाना जाता है और बनारस घराना कथक
नृत्य का अन्य प्रसिद्ध विद्यालय है ।
कथक में गतिविधि (नृत्य)
की विशिष्ट तकनीक है । शरीर का भार क्षितिजिय और लम्बवत् धुरी के बराबर समान रूप
से विभाजित होता है । पांव के सम्पूर्ण सम्पर्क को प्रथम महत्व दिया जाता है, जहां सिर्फ पैर की ऐड़ी या अंगुलियों का उपयोग किया जाता है
। यहां क्रिया सीमित होती है । यहां कोई झुकाव नहीं होते और शरीर के निचले हिस्से
या ऊपरी हिस्से के वक्रों या मोड़ों का उपयोग नहीं किया जाता । धड़ गतिविधियां
कंधों की रेखा के परिवर्तन से उत्पन्न होती है, बल्कि नीचे कमर की मांस-पेशियों और ऊपरी छाती या पीठ की रीढ़ की हड्डी के
परिचालन से ज्यादा उत्पन्न होती है ।
मौलिक मुद्रा में संचालन की
एक जटिल पद्धति के उपयोग द्वारा तकनीकी का निर्माण होता है । शुद्ध नृत्य (नृत्त)
सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है, जहां नर्तकी
द्वारा पहनी गई पाजेब के घुंघरुओं की ध्वनि के नियंत्रण और समतल पांव के प्रयोग
से पेचीदे लयात्मक नमूनों के रचना की जाती है । भरतनाट्यम्, उड़ीसी और मणिपुरी की तरह कथक में भी गतिविधि के एककों के
संयोजन द्वारा इसके शुद्ध नृत्य क्रमों का निर्माण किया जाता है । तालों को
विभिन्न प्रकार के नामों से पुकारा जाता है, जैसे टुकड़ा, तोड़ा और परन-लयात्मक नमूनों की प्रकृति के सभी सूचक
प्रयोग में लाए जाते हैं और वाद्यों की ताल पर नृत्य के साथ संगत की जाती है ।
नर्तकी एक क्रम ‘थाट’ के साथ आरम्भ करती है, जहां गले, भवों और कलाईयों की धीरे-धीरे होने वाली गतिविधियों की
शुरूआत की जाती है । इसका अनुसरण अमद (प्रवेश) और सलामी (अभिवादन) के रूप में
परिचित एक परंपरागत औपचारिक प्रवेश द्वारा किया जाता है ।
इसके बाद अनेक चक्कर नृत्य
खण्डों में नृत्य शैली की एक बहुत विलक्षण विशेषता है । लयात्मक अक्षरों का
वर्णन सामान्य है; नर्तकी अक्सर
एक निर्दिष्ट छंदबद्ध गीत का वर्णन करती है और उसके बाद नृत्य गतिविधि के प्रस्तुतीकरण
द्वारा उसका अनुसरण करती है । कथक के नृत्त भाग में नगमा को प्रयोग में लाया जाता
है । ढोल बजाने वाले (यहां ढोल एक परवावज़, मृदंगम् का एक
प्रकार या तबले की जोड़ी में से कोई एक हो सकता है) और नर्तकी-दोनों एक सुरीली
पंक्ति की आवृत्ति पर निरंतर संयोजनों का निर्माण करते हैं । अर्थात पहले परवावज़
या तबले पर एक पंक्ति को बजाया जाता है, उसके बाद
नर्तकी अपनी नृत्य गतिविधि या क्रिया में उसे दोहराती है । ढोल पर 16, 10, 14 आघात (ताल) का एक सुरीला क्रम एक आधार पर प्रदान करता है, जिस पर नृत्य का पूरा ढांचा निर्मित होता है ।
अभिनय में ‘गत’ कहे जाने
वाले साधारण समूहों में शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता और यह द्रुत लय में कोमलता
पूर्वक प्रस्तुत किया जाता है । यह लघु वर्णनात्मक खण्ड है, जो कृष्ण के जीवन से ली गई एक लघु उपकथा का प्रस्तुतीकरण
है अन्य समूहों जैसे ठुमरी, भजन, दादरा- सभी संगीतात्मक रचनाओं में मुद्राओं के साथ एक काव्यात्मक
पंक्ति की संगीत के साथ संयोजन करके व्याख्या की जाती है ।
इन खण्डों में भरतनाट्यम्
या उड़ीसी की तरह यहां शब्द से शब्द या पक्ति से पंक्ति की व्याख्या एक ही समय
में की जाती है । यहां नृत्त (शुद्ध नृत्य) और अभिनय (स्वांग) दोनों में एक
विषय वस्तु पर रूपांतरण प्रस्तुती करण के सुधार (प्रर्दशन) के लिए बहुत ज्यादा
अवसर हैं । व्याख्यात्मक और भावनात्मक नृत्य की तकनीकियां आपस में अन्तर्ग्रथित
हैं और एक तरफ काव्यात्मक पंक्ति तथा दूसरी तरफ सुरीली व छंद बद्ध पंक्ति के
प्रदर्शन की विविधता के लिए नर्तकी की कुशलता उसकी क्षमता पर निर्भर करती है ।
अर्थात् यह नर्तकी की सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि वह किस प्रकार एक ही पंक्ति
को विविध रूप से प्रस्तुत कर सकती है ।
आज कथक एक श्रेष्ठ नृत्य
के रूप में उभर रहा है । केवल कथक ही भारत का वह शास्त्रीय नृत्य है, जिसका सम्बंध मुस्लिम संस्कृति से रहा है, यह कला में हिन्दू और मुस्लिम प्रतिभाओं के एक अद्वितीय
संश्लेषण को प्रस्तुत करता है । इसके अतिरिक्त सिर्फ कथक ही शास्त्रीय नृत्य
का वह रूप है, जो हिन्दुस्तानी या उत्तरी भारतीय संगीत से
जुड़ा । इन दोनों का विकास एक समान है और दोनों एक दूसरे को सहारा व प्रोत्साहन
देते हैं ।
साभार- संस्कृति मंत्रालय भारत
सरकार
समाज की बात Samaj Ki Baat
कृष्णधर शर्मा Krishnadhar Sharma
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