पिछले कुछ महीनों के सारे दुःख उसे अचानक याद आ गए। हर एक दुःख का सामना करते वक्त एक भरोसा उसके साथ रहा कि कभी न कभी ये समय बीत जायेगा और वो फिर से अपनी पुरानी ज़िन्दगी पा लेगा। लेकिन आज न जाने क्यों उसके अपने पाँव ही उसका साथ नहीं दे रहे थे। मज़दूरी करते वक्त छह दिन वो इसी उम्मीद में काटता था कि शनिवार की रात से सोमवार सुबह तक वो अपने घर में अपनी मर्ज़ी का मालिक रहेगा। यह एक उम्मीद ही उसके भीतर दूसरी हर एक उम्मीद को जन्म देती थी। (स्वेटर, कहानी संग्रह-अशोक जमनानी)
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