"वसंत के समीर और ग्रीष्म की लू में कितना अंतर है। एक सुखद और प्राणपोषक, दूसरा अग्निमय और विनाशिनी। प्रेम वसंत-समीर है, द्वेष ग्रीष्म की लू। जिस पुष्प को वसंत-समीर महीनों में खिलाती है, उसे लू का एक झोंका जलाकर राख कर देता है।" "तुम सच कहती हो, बेशक हिंदू जाति अधोगति को पहुंच गई, और अब तक वह कभी की नष्ट हो गई होती, पर हिंदू स्त्रियों ही ने अभी तक उसकी मर्यादा की रक्षा की है। उन्हीं के सत्य और सुकीर्ति ने उसे बचाया है। केवल हिंदुओं की लाज रखने के लिए लाखों स्त्रियां आग में भस्म हो गई हैं। यही वह विलक्षण भूमि है, जहां स्त्रियां नाना प्रकार के कष्ट भोग कर, अपमान और निरादर सहकर पुरुषों की अमानुषीय क्रूरताओं को चित्त में न लाकर हिंदू जाति का मुख उज्ज्वल करती थीं। यह साधारण स्त्रियों का गुण था और ब्राह्मणियों का तो पूछना ही क्या?" (सेवासदन-प्रेमचन्द)
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