नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

रविवार, 16 जून 2019

मर्जों का दुभाषिया- झुम्पा लाहिड़ी

 "इससे मैं कुछ समझ नहीं पायी। मि. पीरज़ादा और मेरे मां-बाप एक ही भाषा बोलते हैं, एक ही तरह के चुटकुलों पर हंसते हैं, कमोबेश एक ही जैसे दिखायी पड़ते थे। वे अपने खाने में आम का अचार खाते हैं, अपने हाथों से रात के भोजन में चावल खाते हैं। मेरे मां-बाप की तरह कमरे में प्रवेश से पहले मि. पीरज़ादा जूते उतारते हैं, खाना खाने के बाद हाजमे के लिए सौंफ खाते हैं, शराब नहीं पीते हैं, भोजन के अंत में मीठे व्यंजन के तौर पर बिना किसी आडम्बर के चाय के कप में बिस्कुट डुबाकर खाते थे। तिस पर भी मेरे पिता आग्रह करते थे कि मैं अंतर समझूं और वे मुझे अपने डेस्क के ऊपर लगे दुनिया के नक्शे के सामने ले जाते हैं। वे चिंतित दिखते थे कि मि. पीरज़ादा उसे भारतीय के रूप में संबोधन से नाराज हो सकते हैं, हालांकि मैं वास्तव में कल्पना नहीं कर सकती थी कि मि. पीरज़ादा किसी चीज से खीज सकते थे "मि. पीरज़ादा बंगाली हैं मगर वह एक मुसलमान हैं" 

(मर्जों का दुभाषिया- झुम्पा लाहिड़ी)



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