"रात को जब वह फुटपाथ पर लेटी तो देखा कि कपड़ा जिसे वह पिछले कई महीनों से साड़ी के नाम पर लपेटे हुए थी, पूरी तरह फट चुका है। लाख चाहने पर भी वह उससे छाती और कमर, दोनों को ढँक पाने में असमर्थ ही रही। वैसे उसे मालुम है कि जब कभी नींद में उसकी छाती पर से कपड़ा हट जाता है तब सामने मकान में रहते युवक की आंखें रात भर दरवाजे की दरार से चिपकी हुई रहती हैं और उससे थोड़ी ही दूर सोये हुए कमरू को बार-बार पानी पीने या पेशाब करने के लिए उठना पड़ता है। तब उसे बड़ी दया आती है...न जाने स्वयं पर या उस युवक और कमरू पर! बात हवस की नहीं और न ही नंगे जिस्मों की है।
सुबह नींद खुली तो देखा कि काफी दिन निकल आया है। चिथड़े की खोज में निकली तो पता चला कि आज नगर में कहीं कोई कचरे का ढेर नहीं। आज स्वतंत्रता दिवस है, इसलिए कल ही नगर को पूरी तरह साफ कर दिया गया था। कचरे के ढेरों की ओर से मायूस हो कर उसने सोचा कि किसी घर के दरवाजे पर जाकर कोई फटा पुराना कपड़ा मांगे पर फिर यह सोचकर रह गई कि आज त्योहार की गहमा-गहमी में कौन औरत उसे कपड़ा देना पसंद करेगी?.....और दुकानों पर बैठे मर्दों को नंगापन दिखाकर कपड़ा मांगना तो महज बेवकूफी है...वे सिर्फ कपड़े उतारना जानते हैं...पहनाना नहीं...साले सब दुर्योधन हैं, कोई कृष्ण नहीं।...कृष्ण ! वह भी तो ...गोपियों के कपड़े...।....और वह बरबस ही खिलखिला उठी। सड़क पर जाते हुए बच्चों ने उसे और बड़ों ने उसके अंगों को देखा, आवाज आई - स्साली पगली। (मछली का मायका- गुलबीर सिंह भाटिया)
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