नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 20 जून 2020

मेरे बचपन के दिन- तस्लीमा नसरीन

 "माँ 'जय बांग्ला' कहो। देश आजाद हो गया है।"  मैं खुशी से नाचते हुए बोली। माँ हँस रही थीं और उनकी दोनों आँखों से आँसू थे कि बहते ही जा रहे थे। वे फिर हँसने लगीं। उनका हँसना-रोना साथ ही चल रहा था। रास्ते में अभी भी भीड़ थी। लोग 'जय बांग्ला जय बांग्ला' के नारे लगाते हुए पूरे दापुनिया को सिर पर उठाए दौड़ रहे थे। कल तक जहाँ गोलियों की आवाज गूँज रही थी, शोक का क्रन्दन सुनाई पड़ता था, वहाँ आज खुशी, उल्लास और 'जय बांग्ला' का शोर गूँज रहा था। 

'जय बांग्ला' का मतलब अब कोई किसी का घर नहीं जलायेगा, कोई किसी पर गोली नहीं चलाएगा, कहीं पर बम नहीं गिरेगा, कोई किसी की आँख पर पट्टी बांधकर नहीं ले जाएगा, हवा में लाशों की दुर्गन्ध नहीं होगी, आसमान में गिद्धों के झुंड नजर नहीं आएँगे, हम लोग अब शहर के अपने घरों में लौट सकते हैं, जहाँ अपने कमरे में मैं गावतकिये को छाती से चिपकाए सोऊँगी। मेरे खिलौने की माँ-बेटियाँ अभी भी अपनी नन्हीं पलंगों पर सो रही होंगी।" (मेरे बचपन के दिन- तस्लीमा नसरीन)




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