नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

लेबनान संकट

 महामारी और आर्थिक संकट से जूझ रहे मध्यपूर्वी देश लेबनान में मंगलवार को हुए धमाकों ने भारी तबाही मचाई है। राजधानी बेरूत के पोर्ट इलाके में एक वेयर हाउस में रखे 2750 टन अमोनियम नाइट्रेट के कारण कई छोटे-बड़े धमाके हुए, जिसने एक खूबसूरत शहर को मलबे और राख के ढेर में बदल कर रख दिया है। बताया जा रहा है कि इतनी बड़ी मात्रा में यह खतरनाक रसायन असुरक्षित तरीके से रखा हुआ था। 2013 में एक माल्दोवियन कार्गो शिप इस रसायन को लेकर जा रहा था, लेकिन तकनीकी खराबी आने के कारण इसे बेरूत में ही उतार दिया गया और उसके बाद से यह वेयरहाउस में रखा हुआ था। 

अमोनियम नाइट्रेट अमूमन खेती के लिए उर्वरक में नाइट्रोजन के स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसे ईंधन वाले तेल के साथ मिलाकर विस्फोटक भी तैयार किया जाता है, जिसका इस्तेमाल खनन और निर्माण उद्योगों में होता है। चरमपंथियों ने कई बार इसका इस्तेमाल बम बनाने में भी किया है। 

जानकारों का कहना है कि अमोनियम नाइट्रेट को अगर ठीक से स्टोर किया जाए, तो ये सुरक्षित रहता है। लेकिन अगर बड़ी मात्रा में ये पदार्थ लंबे समय पर ऐसे ही जमीन पर पड़ा रहा, तो धीरे-धीरे खराब होने लगता है। बेरूत के वेयरहाउस में रखे इस रसायन के बारे में भी यही कहा जा रहा है कि या तो इसका निपटारा किया जाना चाहिए था या फिर इसे बेच देना चाहिए था। 

लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार ने और संबंधित अधिकारियों ने इस ओर लापरवाही दिखाई और बेरूत को इतनी बड़ी औद्योगिक दुर्घटना का शिकार होना पड़ा। ये धमाके कितने शक्तिशाली थे, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 2 सौ किमी दूर साइप्रस में इसकी आवाज सुनी गई। धमाके के बाद जिस तरह की शॉकवेव उठी, उससे नौ किलोमीटर दूर बेरूत अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पैसेंजर टर्मिनल में शीशे टूट गए। इस हादसे में कम से कम 135 लोगों की मौत हो चुकी है और 5 हजार के करीब घायल हुए हैं। 

अस्पताल मरीजों और पीड़ितों से भर गए हैं। 3 लाख से अधिक लोगों के बेघर होने की आशंका है और 10-15 अरब डालर का नुकसान हो चुका है।  जहां धमाके हुए, वहां पास में ही सरकारी अनाज के गोदाम भी थे, जो अब पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। इन गोदामों में रखा करीब 15 हजार टन अनाज राख हो चुका है और अब लेबनान के पास केवल एक महीने की खाद्य सामग्री है। 

इसका मतलब आने वाले समय में भयंकर खाद्य संकट देखने मिल सकता है। लेबनान अपनी जरूरत का अधिकतर अनाज आयात करता है, लेकिन पहले से आर्थिक संकट झेल रहे देश के पास और अनाज आयात करने के लिए पैसे नहीं हैं। 

कुछ लोगों की लापरवाही लाखों लोगों के जीवन के लिए भयावह संकट साबित हुई है। हालांकि लेबनान के राष्ट्रपति मिशेल आउन और प्रधानमंत्री हसन दियाब ने मामले की कड़ी जांच करने और दोषियों को सजा देने की बात कही है, लेकिन इतिहास के अनुभव यही बताते हैं कि इस तरह के हादसों के जिम्मेदार लोग किसी किसी तरह बच निकलते हैं और जनता अपने घावों के साथ कराहती रह जाती है। बीते वक्त में चेर्नोबिल से लेकर भोपाल गैस कांड तक कई भयावह औद्योगिक दुर्घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें इंसाफ मिलने की उम्मीद समय बीतने के साथ कम होती जाती है। 

वैसे इस तरह की दुर्घटनाओं में जहां ताकतवर लोगों का स्वार्थी चरित्र उजागर हो जाता है, वहीं आम जनता की उदारता की ताकत भी दिखने लगती है। बेरूत में धमाकों के बाद सरकारी राहत और मदद की प्रतीक्षा करने की जगह बहुत से युवा स्वयंसेवी बनकर सड़कों पर उतर गए। दास्ताने और मास्क पहने ये युवा मलबा हटाने, सफाई करने से लेकर घायलों की तीमारदारी में लग गए। 

कई लोगों ने भोजन-पानी और दवा का इंतजाम किया। बहुत से लोगों ने अपने घरों में बेघरों को पनाह दी। कई व्यापारियों ने मरम्मत के काम को मुफ्त कर देने का प्रस्ताव रखा। ये तमाम लोग सरकार के ढीले-ढाले रवैये से नाराज हैं और अपने देशवासियों की मदद खुद करना चाहते हैं। बहुत से देश भी इस मुसीबत की घड़ी में लेबनान की मदद के लिए आगे आए हैं। 

जर्मनी ने खोज और बचाव विशेषज्ञ भेजे, मेडिकल सहायता का प्रस्ताव रखा है साथ ही रेडक्रास को 10 लाख यूरो की मदद की है। फ्रांस ने राहत और चिकित्सा सामग्री भेजी और इसके साथ राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों खुद लेबनान पहुंच गए। ऐसा करने वाले वे पहले विदेशी नेता बन गए। आस्ट्रेलिया, इराक, मिस्र, जोर्डन और अमेरिका जैसे तमाम देशों ने भी मदद की पेशकश की है। 

इस मानवीय संकट के वक्त मदद और सहानुभूति दवा की तरह साबित होते हैं। वैसे लेबनान के जख्मों को भरने में काफी वक्त लगेगा, यह बात भारत के लोग भी समझ सकते हैं, जो खुद भोपाल गैस कांड का पीड़ित है। उस घटना के लगभग 3 दशक बाद भी पूरी तरह उबरा नहीं जा सका है। इस तरह की घटनाओं के वक्त जांच और एहतियात जैसे शब्द काफी जोर देकर इस्तेमाल किए जाते हैं, लेकिन वक्त बीतने के साथ फिर लापरवाही का सिलसिला शुरु हो जाता है। 

भारत में ही भोपाल की घटना के बाद औद्योगिक दुर्घटनाओं को पूरी तरह रोका नहीं जा सका। लेबनान की घटना से दुनिया को एक चेतावनी और मिल गई है, पर क्या सरकारें इसे सुनने को तैयार हैं।


(साभार- देशबंधु)

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