"लोग सब्जी बाजार से लौटते समय कैसे सर्राफ की दुकान में घुस जाते हैं और एक सोने की अँगूठी खरीद लेते हैं? सोने की अँगूठी खरीदने घर का नौकर कभी नहीं जाएगा। सब्जी खरीदने जा सकता है। उससे एक-दो रुपये खो जाएँ, यहाँ तक तो ठीक है। पर दस-बीस रुपये वह नहीं पचा सकता। दफ्तर के साहब के लिए मँहगू कितना भी ईमानदार हो, पर सौ रुपये के लिए उसकी नीयत डोल सकती थी। यानी निन्यानवे रुपये तक वह ईमानदार था। हैसियत के अनुसार नीयत डोलने की सीमा निर्धारित होती है। मेरे जैसी हैसियतवाला, यानी संतू बाबू, जिसकी सालभर से ज्यादा नौकरी हो गई थी और करीब सालभर शादी को हो गया, वह चार-पाँच सौ में अपनी नीयत खराब नहीं करेगा।" (नौकर की कमीज- विनोद कुमार शुक्ल)
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