नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

नौकर की कमीज- विनोद कुमार शुक्ल

 "लोग सब्जी बाजार से लौटते समय कैसे सर्राफ की दुकान में घुस जाते हैं और एक सोने की अँगूठी खरीद लेते हैं? सोने की अँगूठी खरीदने घर का नौकर कभी नहीं जाएगा। सब्जी खरीदने जा सकता है। उससे एक-दो रुपये खो जाएँ, यहाँ तक तो ठीक है। पर दस-बीस रुपये वह नहीं पचा सकता। दफ्तर के साहब के लिए मँहगू कितना भी ईमानदार हो, पर सौ रुपये के लिए उसकी नीयत डोल सकती थी। यानी निन्यानवे रुपये तक वह ईमानदार था। हैसियत के अनुसार नीयत डोलने की सीमा निर्धारित होती है। मेरे जैसी हैसियतवाला, यानी संतू बाबू, जिसकी सालभर से ज्यादा नौकरी हो गई थी और करीब सालभर शादी को हो गया, वह चार-पाँच सौ में अपनी नीयत खराब नहीं करेगा।" (नौकर की कमीज- विनोद कुमार शुक्ल)



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