नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 15 अगस्त 2020

दिवाली की छुट्टी

इस दिवाली घर नहीं आ पाउँगा
छुट्टी नहीं मिल पाई है माँ!
मालिक का भी दोष नहीं है माँ
क्या करें! काम ही बहुत सारा है
इतनी सारी जिम्मेदारी है मेरे सिर
मैंने आने की बहुत कोशिश की माँ
मगर क्या करूँ! नौकरी तो करनी है न
त्योहारों में गाड़ी में रिजर्वेशन भी
कहाँ मिल पाता है माँ
आपको तो पता है मेरी मजबूरी
फिर यहाँ मेरा भी तो परिवार है न
त्योहार में मेरे घर जाने से
बच्चे भी तो दुखी होंगे न!
मुझे तो बहुत कुछ देखना पड़ता है माँ
मोबाइल फोन को कान में लगाये
बेटे की मजबूरियों को सुनती हुई माँ
सोचने लगती है कि बेटा तो
सचमुच ही घर आना चाहता था
मगर नौकरी की दुश्वारियों के चलते
अपने ही घर नहीं आ पा रहा है
भोली माँ यह बिलकुल नहीं समझ पाती
कि दिवाली में भला कौन काम करता है
या किसे छुट्टी नहीं मिल पाती है
खैर! अब तो माँ ने भी बिना बच्चों के
दिवाली और होली मनाना सीख लिया है...

          (कृष्ण धर शर्मा, 29.10.2019)

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