"मैंने जो विचार किया है उसे बताता हूँ आप सुनें-आर्यों ने आर्य-संस्कृति और देवों ने देव-संस्कृति की स्थापना कर अपनी प्रगति कर रहे हैं। मैंने भी रक्ष-संस्कृति बनाई है। इस रक्ष-संस्कृति के सभी जन राक्षस कहलाएंगे। दानव, दैत्य, असुर, निशाचर, पिशाच जैसे सम्बोधन देकर आर्यों ने हमें नीच, दास कहा, हीनता का बोध कराते हैं ये शब्द। अब ये सभी राक्षस हुए। राक्षस रक्षा करेगा। हम अपना अभियान आरम्भ तो करें परन्तु राक्षस बनकर जो हमारी अधीनता स्वीकार करेगा, हम उनकी रक्षा करेंगे। शवर, किरात, निषाद, वानर, नाग, रीछ, कोल, भील, मुंडा, संथाल, गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, चारण, ग्राद्ध आदि जितने आदिवासी हैं, ग्रामणी हैं, अधिपति हैं इन पर अपना अधिकार करना और रक्ष-संस्कृति के मूल्यों को स्थापित करना है। यही हमारा प्रथम कार्य होगा।" ...और सभी राक्षस हो गए।
रावण ने छोटे-छोटे मांडलिक राज्यों को अपने अधीन कर लिया। रावण जिन ग्रामों को अपने अधीन करते, रक्ष का परचम फहरा देते। ग्रामों से दो से पाँच युवक रावण की सेना में ले लिये जाते। अब रावण कई अधिपतियों के स्वामी बन गए थे। जयी रावण कन्धे पर परशु रखे रक्ष-संस्कृति की स्थापना हेतु अनन्त यात्रा पर चल चुके थे। (वज्रांगी- वीरेंद्र सारंग)
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