मौत से बचकर भी पूरा कहाँ बच पाता है कोई
कुछ न कुछ ले ही जाती है वह छोड़ने के बदले
कृष्णधर शर्मा 22.05.23
नमस्कार,आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757
मौत से बचकर भी पूरा कहाँ बच पाता है कोई
कुछ न कुछ ले ही जाती है वह छोड़ने के बदले
कृष्णधर शर्मा 22.05.23
"पानी से मछली को बाहर कर दीजिये और दूसरे साफ पोखरे में पुनर्वासित कर दीजिए, 80 फीसदी मछलियां इस विस्थापन-पुनर्वासन की प्रक्रिया में स्वतः मर जायेंगी।
भोले-भाले किसान जमीन के साथ पानी की मछलियों की तरह जुड़े हैं। वे जमीन से चिपककर खड़े हो गए। मछलियां विद्रोह नहीं कर सकती हैं, किसानों ने कहा -हम विद्रोह कर सकते हैं। पुनर्वास की शर्तों के बिना जमीन अधिग्रहण के हठ में सरकार ज्यादा आक्रामक होती गई। जनाक्रोश की टकराहट में नंदीग्राम जलने लगा।" (नंदीग्राम डायरी- पुष्पराज)
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की बात
'उधर मत जाना साब भूलन है।' कोटवार ने दरोगा को रोका और कहा, 'इधर से एक किनारे से निकल जाते हैं साब।' 'अरे यह भूलन क्या होता है रे ? जंगल में पता नहीं क्या-क्या होता है ?' दरोगा ने पूछा तो कोटवार बताने के लिए तैयार ही था।
'सर, यह भूलने की बीमारी भी बड़ी अजीब चीज होती है। यह गांव-जंगल का चीज़ को कोई शहरी नहीं मानता। कहते हैं यह तो क़िस्सा-कहानी है, पर देखो साहब यहाँ सचमुच में भूलन है। उधर जो स्थान है वहाँ भूलन कांदा है उस पर जो पैर रख देता है न साब तो वह रास्ता ही भूल जाता है। उसे सब ओर जंगल ही जंगल दिखता है। रास्ता दिखता ही नहीं, वह यहीं का यहीं भटकता रहता है।'
'एक बार भटक गया तो उसका कोई छुटकारा का उपाय है? या वह जीवन भर भटकता ही रहेगा ?'
'हाँ है न साब, जंगल में सब व्यवस्था है, कोई चरवाहा या और कोई गाँव का इधर से निकलता है तो समझ जाता है कि भूलन में भटक गया है तो वह जाकर उसका हाथ पकड़ लेता है। बस छू देने भर से वह फिर से रास्ता देखने लगता है।'
'हैं न साब जादू गाँव-जंगल का!' थोड़ा रुक कर फिर बोला कोटवार ।
'अरे यह गप्प बाजी है',
दरोगा ने कहा तो कोटवार ने बताया, 'साहब आप मान नहीं रहे हैं, अपने ही गाँव की एक बारात भूलन में भटक गई थी। और कितनों बार धोखा से आन गाँव के मेहमान जिसको नहीं मालूम वह छू देते हैं भूलन को और भटक जाते हैं। ... गाँव वाले उधर जाते ही नहीं किनारे-किनारे निकल जाते हैं ।' दरोगा जंगल की इन बातों को सुन-सुन कर हैरान था। मान लेने के अलावा कोई चारा नहीं था। नहीं तो कोटवार कहता, नहीं मानते न साब तो चल कर देख लो! (भूलन कांदा-संजीव बख्शी)
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