'उधर मत जाना साब भूलन है।' कोटवार ने दरोगा को रोका और कहा, 'इधर से एक किनारे से निकल जाते हैं साब।' 'अरे यह भूलन क्या होता है रे ? जंगल में पता नहीं क्या-क्या होता है ?' दरोगा ने पूछा तो कोटवार बताने के लिए तैयार ही था।
'सर, यह भूलने की बीमारी भी बड़ी अजीब चीज होती है। यह गांव-जंगल का चीज़ को कोई शहरी नहीं मानता। कहते हैं यह तो क़िस्सा-कहानी है, पर देखो साहब यहाँ सचमुच में भूलन है। उधर जो स्थान है वहाँ भूलन कांदा है उस पर जो पैर रख देता है न साब तो वह रास्ता ही भूल जाता है। उसे सब ओर जंगल ही जंगल दिखता है। रास्ता दिखता ही नहीं, वह यहीं का यहीं भटकता रहता है।'
'एक बार भटक गया तो उसका कोई छुटकारा का उपाय है? या वह जीवन भर भटकता ही रहेगा ?'
'हाँ है न साब, जंगल में सब व्यवस्था है, कोई चरवाहा या और कोई गाँव का इधर से निकलता है तो समझ जाता है कि भूलन में भटक गया है तो वह जाकर उसका हाथ पकड़ लेता है। बस छू देने भर से वह फिर से रास्ता देखने लगता है।'
'हैं न साब जादू गाँव-जंगल का!' थोड़ा रुक कर फिर बोला कोटवार ।
'अरे यह गप्प बाजी है',
दरोगा ने कहा तो कोटवार ने बताया, 'साहब आप मान नहीं रहे हैं, अपने ही गाँव की एक बारात भूलन में भटक गई थी। और कितनों बार धोखा से आन गाँव के मेहमान जिसको नहीं मालूम वह छू देते हैं भूलन को और भटक जाते हैं। ... गाँव वाले उधर जाते ही नहीं किनारे-किनारे निकल जाते हैं ।' दरोगा जंगल की इन बातों को सुन-सुन कर हैरान था। मान लेने के अलावा कोई चारा नहीं था। नहीं तो कोटवार कहता, नहीं मानते न साब तो चल कर देख लो! (भूलन कांदा-संजीव बख्शी)
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