खूब घने काले बाल, चमकती हुई काली आंखें, एक निराला-सा व्यक्तित्व, गहन अहम्मन्यता से भरपूर । रानी के समान गरिमा, पिघलते हुए स्वर्ण-सा रंग, आदर्श सुन्दरी न होने पर भी भव्य आकर्षण से ओतप्रोत आंखों में झांकती हुई स्थिर दृढ़ संकल्प-प्रतिमा, कटाक्ष में तैरती हुई तीखी प्रतिभा और उत्फुल्ल होठों में विलास करती हुई दुर्दम्य लालसा - यह सूर्पनखा का व्यक्तित्व था । प्रतिक्रिया के लिए सदैव उद्यत और अपने ही पर निर्भर। लम्बी, तन्वंगी, सतर और अचंचल ।
उसका असली नाम था 'वज्रमणि', परन्तु नाखून उसके बड़े और चौड़े सूर्प की भांति थे, इससे बचपन ही में विनोद और प्यार से भाई उसे चिढ़ाते हुए सूर्पनखा कहते थे और अब उसका यही नाम प्रसिद्ध था। इस नाम से वह बचपन में चिढ़ती थी, परन्तु अब नहीं। वह परन्तप रावण और दुर्धर्ष कुम्भकर्ण की अकेली बहन थी, प्यार और दुलार के वातावरण में पली हुई। प्रथम रक्षकुल, दूसरे राजकुल, तीसरे प्रतापी भाइयों की प्रिय इकलौती बहन, चौथे निराला अहं-स्वभाव, पांचवें स्वच्छन्द जीवन, सबने मिलकर उसे एक असाधारण - कहना चाहिए, लोकोत्तर- बालिका बना दिया था।
राक्षसेन्द्र रावण के सामने आकर उसने शालीनता से कहा- "जयतु देवः ! जयत्वार्यः !” “अये स्वसा! अपि कुशलं ते?" "प्रीतास्मि । किम् रक्षेन्द्र !" “भद्रं ते पश्यामि भगिनि !” “मेरे लिए रक्षेन्द्र का कुछ आदेश है?" "तेरे ही कल्याण के लिए। तू रक्षेन्द्र की प्राणाधिका इकलौती बहन है।" "कुछ विशेष बात है?" "हां बहन, तुझसे महिषी मन्दोदरी ने कुछ कहा है?" “यही कि रक्षेन्द्र मुझे देखना चाहते हैं।" "तो बैठ बहन, तुझसे मैं कुछ बात करूंगा।" (वयं रक्षाम- आचार्य चतुरसेन)
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