नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

बुधवार, 15 नवंबर 2023

स्थानांतरण

स्थानांतरण मात्र स्थानांतरण नहीं होता है

वह तो होता है एक तरह का विस्थापन

सालों की जमी-जमाई गृहस्थी को

एक झटके में समेट कर अचानक से

चल देना होता है एक नई जगह के लिए

बिना कुछ सोचे-समझे देखे-भाले

अपनी जान-पहचान अपना कमाया सम्मान

सब वहीँ छोड़ कर बढ़ जाना होता है

एक अनजान दिशा में

जहाँ पर होता है सब कुछ नया-नया

अपरिचित, अनजान सा

जहाँ पर शुरू करना पड़ता है

सब कुछ शुरू से, नए सिरे से

जहाँ बनाने पड़ते हैं सारे रिश्ते नए

चाहे वह पड़ोसी हों या दूधवाला

या फिर सब्जी बेचनेवाला ही हो

मिटानी पड़ती हैं कुछ पुरानी यादें

नए रिश्तों को जगह देने के लिए...

            कृष्णधर शर्मा  15.11.23

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शनिवार, 4 नवंबर 2023

खाली जगह- गीतांजलि श्री

 कुछ टुकड़े, बाक़ी राख । कैफ़े के पंखें यों नरम पिघले लचके ज्यों नृत्यांगना की मुद्राएँ। बर्तन झाड़न यों लटके कतार में और बोतलें भी, जैसे काली अदाकारियों की नुमाइश । पूरा कैफ़े किसी कलाकार का स्याह सपना । टुकड़े टुकड़े। एब्स्ट्रेक्ट आर्ट । टुकड़े टुकड़े। जो कुर्सियाँ हो सकती थीं, मेज़, इडली, साम्भर, गुलाबजामुन, पाव भाजी, अब काले और चूर चूर । टुकड़े, जो लोग हो सकते थे, लड़के और लड़कियाँ, युनिवर्सिटी की इमारत में घुसने के पहले। टुकड़े, जो उन्नीस जन जुड़ते अगर जोड़ना आता तोड़नेवाले को। अगर होता वह ब्रह्मा विष्णु महेश सब !

 उन्नीस लोग। जिनकी पहचान होनी थी। टुटहे फुटहे टुकड़े जिनकी पहचान बाक़ी थी। पहचान में डालना ही टुकड़े में तोड़ना है। यहाँ कोशिश हो रही थी टुकड़ों को पहचानने की ! 

और एक मैं, साबुत टुकड़ा, जिसे चींटियाँ गोद रही थीं या गोद में लिये थीं ! उन्नीस जन के टुकड़े और तीन बरस का टुकड़ा जो किसी का भी हो सकता था, बम का भी, या बम ही, या दानव, या देव, जो आता है अभी भी रातों में खुरच खुरच चींटियों को लेकर कि मुझ पर पड़ी नींद का कवच उतार दें खुरच खुरच और फिर वही तीन बरस का पड़ा हो ख़ाली जगह में और फिर वही भकभक लपटें उससे दूर मगर एकदम पास उछलें और फिर वही अट्ठारह बरस के टुकड़े टुकड़े अँधेरे में भर जाएँ जिनके बीच से फिर सब गिरता ही गया गिरता ही गया और है किसी का दिल जो धड़के जा रहा है विस्फोट के पहले और है उसी की नींद जो उतर गई है खुरच खुरच और पूरी लम्बी रात है जिसे पार करना है किसी तरह किसी न किसी तरह ... | मेरे पूरे बदन पर लाल लाल रैश फट पड़ता है। (खाली जगह- गीतांजलि श्री)




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शुक्रवार, 3 नवंबर 2023

हमारी बिसात ही फिर क्या

 

गिर जाते हैं भरभरा कर एक झटके में पुल बड़े-बड़े

नींव भी तो नहीं है हमारी बिसात ही फिर क्या

                         कृष्णधर शर्मा 02.11.23