नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

बुधवार, 20 दिसंबर 2023

युवाओं के सामाजिक सरोकार

 आजकल के नौजवानों का क्या? उन्हें तो मोटी सेलरी वाली अच्छी नौकरी मिल जाए, रोज-रोज होटल का खाना, ब्रैंडेड कपडे, महंगा मोबाइल, टैब-शैब, महंगी कार, बिना मतलब वाली कानफाडू म्यूजिक, डांस, पार्टी-शार्टी.. बस! जिंदगी का कुल मतलब उनके लिए यहीं तक सीमित रह गया है। देश-दुनिया में क्या हो रहा है और उसमें उनका क्या फर्ज बनता है, इससे तो उनका कोई मतलब ही नहीं है..  दो-तीन साल पहले तक अधिकतर बुजुर्गो की युवाओं के बारे में यही राय थी। वे मानते थे कि आज का युवा न तो अपने रीति-रिवाज और परंपराओं की कोई समझ रखता है, न इतिहास और अपने महानायकों को जानता है और न आसपास के परिवेश से ही उसका कोई मतलब है। लेकिन, इधर यह सोच बदली है। आज अगर कोई बुजुर्ग ऐसा कुछ कहे तो उसके हमउम्र साथी ही उसे टोकते हैं.

ऐसा नहीं है भाई! आज के बच्चे हमारी पीढी से बहुत तेज हैं। वे समाज में लगातार सक्रिय केवल दिखते ही नहीं हैं, लेकिन खयाल हर बात का रखते हैं। देश और समाज से लेकर इतिहास-भूगोल और अर्थव्यवस्था तक सब उनकी चिंता के विषय हैं। कभी फेसबुक-ट्विटर पर देखा है, कैसे कमेंट्स होते हैं आज की व्यवस्था पर इन लोगों के। कुछ तो एकदम नौजवान लडके-लडकियां ऐसी बातें करते हैं, जो हमें दंग कर देती हैं। ऐसे कमेंट्स बिना चिंता किए नहीं निकलते। लेकिन, एक बात हमेशा ध्यान रखने की है। वह यह कि उनका समय हमारे समय से बहुत कठिन है। उनकी मुश्किलों पर गौर करें तो आपकी सारी शिकायतें दूर हो जाएंगी.

इसके पहले कि हम नई पीढी के सरोकारों की बात करें, इस बात पर गौर करना जरूरी होगा कि वह किन हालात में जिंदगी जी रही है। अगर आप 80-90 की कस्बाई जीवनशैली की कसौटी पर रख कर आज के युवाओं के सरोकारों का विश्लेषण करना चाहें तो शायद उसके साथ कभी न्याय नहीं हो सकेगा। न तो अब कहीं 10-5 बजे वाली नौकरियां रह गई हैं, न होलसेलर से सामान लेकर ग्राहक को बेच देने तक सीमित व्यापार और न पहले जैसी परंपरागत खेती ही। कडी प्रतिस्पर्धा के इस दौर में सब कुछ बदल चुका है। हर क्षेत्र में हर स्तर पर नए प्रयोगों की भरमार है और बडी मेहनत से निकाले गए प्रयोग भी नए और कारगर साबित हो पाएंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। 

 स्थितियों के आकलन का अगर कोई पैमाना होता और उस पर देखा जा सकता तो शायद यह पाया जाता कि आज के युवा की जिंदगी पहले की तुलना में कई गुना च्यादा कठिन हो गई है। यह सही है कि सुविधाएं बढी हैं, लेकिन जितनी तेजी से सुविधाएं बढी हैं, हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा और भविष्य के प्रति असुरक्षा की भावना उससे कहीं च्यादा तेजी से बढी है। इसमें अपने को टिकाए रखने के लिए सिर्फ दिमाग का तेज रहना और कडी मेहनत ही पर्याप्त नहीं, खुद को अपने और दूसरे क्षेत्रों की नवीनतम गतिविधियों से लगातार अपडेट भी रखना पडता है। यह एक ऐसी आवश्यकता है, जिसके लिए आज का युवा लगातार कुछ नया जानने, सीखने और पढने में लगा रहता है। लगातार दिखता अपना लक्ष्य उसे दफ्तर और घर में अंतर नहीं करने देता। इसके अलावा खुद को एकरसता या ऊब से बचाने और तरोताजा बनाए रखने के लिए मनोरंजन की खुराकभी जरूरी ही है। 

 सार्थक हस्तक्षेप का जोश  इन हालात में भी हम विभिन्न सोशल नेटव‌र्क्स से लेकर ब्लॉग और आंदोलनों तक में युवाओं की सक्रिय हिस्सेदारी देखते हैं। यह सही है कि वे महत्वाकांक्षी हैं और जिंदगी से हमेशा कुछ अधिक चाहते रहते हैं और यह कोई अपराध नहीं है। ऐसी कोई पीढी नहीं हुई है, जिसने अपने जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश न की हो। यही वे भी कर रहे हैं। लेकिन, इसी क्रम में वे अपना सारा कामकाज छोडकर उन सामाजिक आंदोलनों में हिस्सेदारी भी निभाते हैं, जिनसे उनका और देश का सीधा जुडाव है। किसी की मदद से भी वे पीछे नहीं हटते हैं। शर्त यह है कि उसका औचित्य उनकी समझ में आए। हवा-हवाई नारों और झूठमूठ के वादों में वे विश्वास नहीं करते। आज का युवा जिस चीज से सबसे च्यादा परेशान है, वह सरकारी महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार है। इसके लिए वह एक स्थायी समाधान चाहता है। काले धन को बाहर लाने या जन लोकपाल की मांग को लेकर हुए आंदोलनों में न केवल दिल्ली, बल्कि देश भर के युवाओं ने अपने निजी नुकसान की शर्त पर भी हिस्सेदारी की। ठीक ऐसी ही बेताबी निर्भया के साथ हुई दरिंदगी के समय भी देखी गई।

  काले धन और जन लोकपाल वाले मसले तो सामाजिक-राजनीतिक संगठनों की ओर से उठाए गए थे, लेकिन निर्भया के मसले पर तो किसी संगठन की ओर से कोई आह्वान तक नहीं किया गया और फिर भी इंडिया गेट के आसपास का पूरा क्षेत्र घेर लिया गया। आसपास के इलाकों में मेट्रो रेल रोक देने और प्रवेश वर्जित कर देने के बाद भी कई दिनों तक धरना चलता रहा। यह विरोध प्रदर्शन करने वाले सारे युवा ही थे। इनमें कॉलेजों के छात्र-छात्राओं से लेकर नए प्रोफेशनल्स तक शामिल थे। वाटर कैनन, आंसू गैस और लाठीचार्ज सब झेलकर भी वे डटे रहे। इन सभी मामलों में लडकियों की शिरकत भी लडकों से कुछ कम नहीं थी। क्या अपने समय के समाज से जुडे होने और उसमें सार्थक हस्तक्षेप की अपनी भूमिका सुनिश्चित करने का इससे बडा कोई और प्रमाण चाहिए?

कर्तव्यों का बोध  ऐसा भी नहीं है कि युवाओं का यह जोश केवल विरोध प्रदर्शन और उनकी चेतना केवल अपने अधिकारों तक ही सीमित है। यह पीढी अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति भी कम जागरूक नहीं है। विभिन्न सामाजिक आयोजनों में आप उसे हर स्तर पर सहयोग करते देख सकते हैं। ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद गरीब ब"ाों को पढाने, युवाओं को रोजगार की तरकीबें सिखाने, सामाजिक-धार्मिक आयोजनों की व्यवस्था बनाने के लिए समय निकालते हैं। वहां भी वे अपनी जिम्मेदारी पूरी लगन के साथ निभाते हैं। पिछले दो बार से चुनावों में हम मतदान का प्रतिशत अप्रत्याशित रूप से बढते देख रहे हैं और साथ ही युवा मतदाताओं की संख्या भी। इस बार लोकसभा चुनावों में जो 10 करोड नए मतदाता जुडे हैं, उनमें 2.31 करोड 18-19 वर्ष आयु वर्ग के हैं और कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियों की कोशिश इन्हें लुभाने की है। निश्चित रूप से यह उनकी क्षमताओं और जागरूकता को देखते हुए ही हो रहा है। पार्टियां यह भी जानती हैं कि यह युवा वोटर जाति-धर्म जैसे आभासी मुद्दों पर आकर्षित होने वाला नहीं है। वह खोखले आदर्शो और आधार विहीन योजनाओं में यकीन नहीं करता। उसे अपने और देश के विकास के लिए ठोस कार्ययोजना चाहिए। शायद यही वजह है कि हर स्तर पर व्यापक बदलाव के संकेत दिखाई दे रहे हैं। 

 अपनी संस्कृति का मोह  जिन युवाओं को हम अपनी संस्कृति से टूटा हुआ समझते हैं, उन्हीं में से कई अपने प्राचीन साहित्य और संस्कृति में नए अर्थ की तलाश में लगे हैं। इनमें से कई तो रोजगार के लिए अपना देश छोडकर अमेरिका, यूरोप और दूसरे देशों में रह रहे हैं। दूसरे देशों में रहते हुए भी अपनी संस्कृति से उनका जुडाव देखना चाहते हैं तो कभी ब्लॉग की दुनिया का रुख करें। आप पाएंगे कि नई पीढी में सॉफ्टवेयर, इंजीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान और अकाउंटेंसी जैसी साहित्येतर विधाओं से जुडे कई लोग अपनी संस्कृति को दुनिया की संस्कृति के सामने रखकर देखने की कोशिश में लगे हैं और ऐसा करते हुए वे किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हैं। वे न तो अपने को किसी से बेहतर मानते हैं और न ही कमतर। बल्कि इस तरह वे अपनी संस्कृति में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं और इस क्रम में संगीत, नृत्य, साहित्य, पुरातत्व और धर्मशास्त्र सब खंगाल रहे हैं।  

इन चीजों को लेकर उनकी सोच पहले की तरह केवल मिशनरी नहीं, बल्कि प्रोफेशनल है। वे देख रहे हैं कि संस्कृति केवल अपनी पहचान जताने ही नहीं, बल्कि पर्यटन का एक महत्वपूर्ण तत्व भी है और पर्यटन दुनिया के सबसे बडे उद्योगों में से एक है। भारत में इसके लिए प्रचुर संभावनाएं हैं और यह हमारे लिए केवल आय का जरिया ही नहीं बनेगा, विश्व समुदाय में इसे नई प्रतिष्ठा भी दिला सकता है। यह अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों के प्रति नई पीढी की जागरूकता का प्रमाण है।

हताशा भी कम नहीं  हालांकि उसे तब घोर हताशा होती है, जब वह देखता है कि हमारे यहां बदलाव की प्रक्रिया बहुत धीमी है। अपनी संस्कृति की महानता की दुहाई देते न थकने वाले कुछ लोग यत्र नार्यस्तु पूच्यंते रमंते तत्र देवता का हवाला जरूर देते हैं, लेकिन उन्हीं लोगों को दहेज के लिए अपने घर की बहू को जला देने में कोई पछतावा नहीं होता। दहेज या मायके की हैसियत को लेकर उन पर व्यंग्य करने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता। वहशीपने का आलम यह है कि अबोध ब"िायां तक सामूहिक दुष्कर्म की शिकार हो जा रही हैं। सिस्टम ऐसा कि जिसमें कहीं किसी बात की सुनवाई हो जाए, यही बहुत है। यह स्थिति उनमें आक्रोश भरती है और उन्हें हताश करती है। बेशक, इन्हीं चीजों को लेकर कभी-कभी वह अराजक होती दिखती है, लेकिन उसका जोर अपने सिस्टम को दुरुस्त करने पर है, न कि उसे बिगाडने या बदले की कार्रवाई पर। 

 वह अपनी हताशा को छिपाने की चालाक कोशिश नहीं करता। अगर उसे उम्मीद की कोई किरण दिखती है और उस पर उसका भरोसा बन पाता है, तो उसे अपनी बाकी व्यस्तताएं छोडकर उसके साथ हो लेने में कोई दिक्कत महसूस नहीं होती और अगर उसे लगता है कि वह इसमें छला गया तो उसे उससे अलग होते भी देर नहीं लगती। व्यक्ति की पहचान के मामले में अपनी गलती स्वीकार करने में उसे कमतरी का एहसास नहीं होता। हाल के आंदोलनों में उसकी शिरकत और फिर मोहभंग इसके बडे उदाहरण हैं। इसकी वजह यही है कि वह किसी प्रयास से सिर्फ विचार के नाम पर नहीं, बल्कि ठोस परिणाम के लिए जुडता है।  

सूचनाक्रांति का असर  पिछले दो दशकों में सूचना तकनीक की दुनिया में जो क्रांति आई है, उसने जीवनशैली ही नहीं, जीवन से आम आदमी की अपेक्षाएं भी बदल दी हैं। अब उसे किसी दूसरे देश की व्यवस्था जानने के लिए ग्रंथालयों की दौड लगाने और किताबों के पन्ने पलटने की जरूरत नहीं होती। एक क्लिक पर दुनिया भर की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं और इतिहास-भूगोल सब उसके सामने होता है। पहले जिन जगहों और तकनीकों को केवल सफेद-काले चित्र देखकर समझना पडता था, अब टीवी पर उनका लाइव शो होता है। किसी कारण से आप उसे न भी देख सकें तो रिकॉर्डिग से लेकर यूटयूब तक कई दूसरे उपाय भी मौजूद हैं। इस क्रांति के चलते सूचनाओं की प्राप्ति ही नहीं, उनकी साझेदारी और अभिव्यक्ति में भी विस्फोट जैसी स्थिति बनी है। मन में जो कुछ चल रहा है, वह दुनिया को बताने के लिए उन्हें बहुत इंतजार करने की जरूरत नहीं होती। वे किसी भी सोशल नेटवर्क पर प्रोफाइल बनाते हैं और अपने सुख-दुख से लेकर विभिन्न मसलों पर विचार तक सब सीधे सबके सामने।

नए भारत की ओर  विभिन्न माध्यमों पर आ रहे उसके विचार यह स्पष्ट करते हैं कि वह पहले की तरह डरा हुआ नहीं है और न संकोची ही। उसने आजाद देश की हवा में सांस ली है और आजादी के मूल्य को वह समझता है। वह इसे बनाए रखना चाहता है और इसीलिए व्यवस्था में सुधार को अनिवार्य मानता है। वह अभिव्यक्ति की आजादी की अहमियत, अर्थ और उसकी सीमाएं भी जानता है। वह संकोच में कुछ भी मान नहीं लेता, तर्क करता है और ठोस सुबूतों के साथ ठोस कार्ययोजना चाहता है। बेहतर होगा कि इस तर्कशीलता को अशिष्टता के रूप में न देखें।  

वह हर चीज को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार ही आंकने की कोशिश करता है। आत्मविश्वास से लबरेज आज के युवा के इस तेवर और नए तरह के उसके संस्कार को समझने के लिए बडों को भी थोडे धैर्य और नई समझ का परिचय देना होगा। अगर उसे सहानुभूतिपूर्वक समझा जाए और उसके लिए उसके स्पेस का सम्मान करते हुए उसे नई दिशा दी जाए तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाले दिनों में हम एक नए भारत के नागरिक होंगे, जिसका दुनिया भर में अपना अलग और बेहद सम्मानजनक स्थान होगा।

अमीर देश का युवा  इम्तियाज अली  

20 साल पहले का युवक ज्यादा पाखंडी था। आज के युवकों का सोसायटी से कंसर्न है। वह अपनी बातें खुलकर कहने लगा है। उसे किसी से मॉरल सर्टिफिकेट नहीं चाहिए। यह कहना सही नहीं होगा कि आज के युवक मोटी सेलरी और बडी नौकरी के पीछे भाग रहे हैं। गौर करें तो वे अपने मन की नौकरी करना चाहते हैं और उसके लिए अच्छे पैसे पा रहे हैं। सच कहूं तो आज का युवक अमीर देश का नागरिक है। वह 20 साल पहले के युवकों की गरीब सोच से आगे निकल चुका है। ऊपरी तौर पर उसमें तडप कम है, क्योंकि उसका पेट भरा हुआ है। मुझे लगता है कि आज के युवकों के पास रोल मॉडल की कोई कमी नहीं है। पारंपरिक सोच में हम कुछ नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को ही रोल मॉडल मानते हैं। आज एक फिल्म स्टार, क्रिकेटर, बैंकर, नॉवेलिस्ट, एनजीओ कार्यकर्ता आदि रोल मॉडल हो सकते हैं। समकालीन युवकों को समझने के लिए हमें अपनी पुरानी सोच बदलनी पडेगी। 

अब इस नजरिये से देखें तो रोल मॉडल के लिए इंदिरा गांधी या अमिताभ बच्चन तक सीमित रहने की जरूरत नहीं है। यह भी जरूरी नहीं है कि भारतीय युवक का रोल मॉडल कोई भारतीय ही हो। मैं अपनी बेटी की बात बताऊं। उसे सुपरवुमन नाम की एक गायिका बहुत पसंद है। वह उसकी फैन है। उसका ऑटोग्राफ लेकर आई है। उसकी इस पसंद पर मैं चौंका, लेकिन आप कोई सवाल नहीं कर सकते। वह एक यूट्यूबर है। अपने गाने बनाती है और यूट्यूब पर डालती है। उसका वास्तविक नाम लीली है। अन्ना आंदोलन हो या निर्भया दुष्कर्म कांड.. ऐसी घटनाओं पर युवकों के सडक पर उतर आने को मैं बहुत सही नहीं मानता। इसे आप उनकी आजादी का प्रदर्शन कह सकते हैं। हो सकता है गुस्सा और विरोध भी हो। कई बार मुझे लगता है कि यह हडबडी में लिया गया फैसला होता है। वे अभियान या आंदोलन को शुरू तो कर देते हैं, लेकिन उसे किसी अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते। सडकों पर आ जाना ही निदान या समाधान नहीं है।

कोई रोल मॉडल ही नहीं  सलिल भट्ट, शास्त्रीय संगीतज्ञ 

 आज के युवा की स्थिति दो दशक पहले जैसी नहीं रह गई है। सूचना का जो विस्फोट हुआ है, उसने सब कुछ बदल दिया है। इसने हमें निजी और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर बदला है। कुछ मामलों में वह समाज से कटा है तो कुछ में जुडा भी है। आम तौर पर देखने में ऐसा लगता है कि वह अपने तक ही सिमट कर रह गया है, लेकिन पिछले दो-तीन वर्षो में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिससे समाज से उसके सरोकार बहुत मुखर रूप में सामने आए हैं। इससे जाहिर होता है कि वह समाज से कटा नहीं है। हां, यह जरूर है कि बेमतलब के झंझटों में वह नहीं पडना चाहता। इसकी एक वजह तो यह है कि उसके पास समय का बहुत अभाव है। कठिन प्रतिस्पर्धा के इस दौर में उसे सबसे पहले समाज में अपनी स्थिति सुनिश्चित करनी है, जो दिन-ब-दिन बहुत मुश्किल होती जा रही है। इसी हाल में वह यह भी देख रहा है कि उसके सामने कोई भरोसे लायक रोल मॉडल ही नहीं है। लोग आते तो हैं समाज का भला करने के नाम पर और फिर जुट जाते हैं केवल अपना, अपने परिवार और रिश्तेदारों का भला करने में। ऊपर से वह मनोरंजन के सस्ते साधनों से जकडा हुआ है। यह सही है कि आज सूचना और मनोरंजन के लिए बहुत सारे साधन हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर अपरिपक्व और सतही किस्म के हैं। जो अच्छे और गुणवत्तापूर्ण साधन हैं, उन तक अभी भी कम लोगों की पहुंच है। इसे सर्वसुलभ बनाया जाना चाहिए। हमारे देश की युवा ऊर्जा अपने समग्र रूप में एक सही दिशा पाए, इसके लिए सामूहिक प्रयास होना चाहिए।  

समय का अभाव  सुदीप नागरकर, लेखक  

आज के युवा के पास खुद के लिए ही समय नहीं है। प्रतिस्पर्धा और महंगाई इतनी बढ गई है कि उसके लिए कोई विकल्प ही नहीं बचा। ऐसी स्थिति में वह समाज के लिए समय निकाले कैसे? फिर भी हम यह देखते हैं कि व्यस्तता और आपाधापी के इस दौर में भी वह बडे-बडे आंदोलनों में शामिल होता है। स्वत: स्फूर्त ढंग से बडे आंदोलन खडे कर देता है। जाहिर है, वह सब कुछ करने के लिए तैयार है। बस जरूरत इस बात की है कि कोई बात उसके मन को छुए और नेतृत्व पर उसका भरोसा बने। इसका आप पूरा असर सोशल नेटवर्किग पर देख सकते हैं। मुझे तो लगता है कि अगले लोकसभा चुनाव में भी फेसबुक-ट्विटर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रहने वाली है। लेकिन आज का युवा अगर अपने आसपास के मामलों में रुचि लेता दिखाई नहीं देता तो इसमें कई बार हमारे कानून भी कारण होते हैं। मसलन किसी दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को अस्पताल तक न पहुंचाने में वह संकोच करता है। इसका एक ही कारण है और वह है पुलिस की बेमतलब पूछताछ। 

अगर पुलिस इस सोच से उबर सके तो इन स्तरों पर भी वह सक्रिय दिखाई देगा।  यह संक्रमण का समय है संदीप नाथ, गीतकार भारत को आजाद हुए छह दशक से ज्यादा बीत गए। आज का युवा आजादी के बाद की चौथी पीढी है। इस पीढी ने वह कष्ट नहीं देखा जो हमारे पूर्वजों ने देखा और थोडा हमने भी महसूस किया। हमारा समय भी संक्रमण का समय है। एक सदी छोडकर दूसरी में आए ही हैं। बाजारवाद का जो सरकारीकरण 91 में शुरू हुआ था, वह शुरुआत में बहुत अच्छा लगा। लोगों को ऐसा लगा कि शायद अब योग्यता और क्षमता की कद्र होगी। कुछ दिनों तक ऐसा रहा भी। लेकिन जल्दी ही यह भ्रम टूट गया। इससे उसके भीतर आक्रोश पैदा हुआ। इसके साथ ही एक नए बदलाव के लिए बेचैनी शुरू हो गई। यह सही है कि आज के युवा को अच्छा खाना-पहनना अच्छा लगता है। लेकिन, इसका यह मतलब नहीं कि उसके लिए जीवन का कुल अर्थ यहीं तक सीमित है। वह समाज के सुख-दुख से भी वह उतना ही जुडा है, जितना कि अपनी निजी चाहतों से।

 वह भौतिकवादी भी है और आध्यात्मिक भी। लेकिन पहले की तरह समाज में सिर्फ औपचारिकताएं निभाने के लिए वह समय नहीं निकाल सकता। उसके पास अपने लिए ही समय नहीं है तो वह समाज के लिए कहां से निकाले। लेकिन जहां वास्तविक जरूरत होती है, वहां वह किसी भी कीमत पर हाजिर होता है। अपने बडे नुकसान करके भी। छोटी-छोटी बातों पर लडना उसके लिए संभव नहीं है। आज उसकी कोई प्रासंगिकता भी नहीं है। वह चाहता है सिस्टम में बदलाव लाना और सिस्टम के ख्िालाफ अपनी आवाज बुलंद करने का उसके पास बहुत बडा माध्यम आज उसका वोट है। रही बात कुछ आत्मकेंद्रित और पलायनवादी लोगों की, तो ऐसे लोग किस समय नहीं थे? आजादी के पहले भी कुछ लोग सर और रॉय बनने की होड में लगे रहते थे और कुछ लोग सिर कटाने को बेताब थे। ये दोनों तरह के लोग हमेशा थे और हमेशा रहेंगे।

छिप जाती हैं अच्छाइयां महेश भट्ट  

मैं कुछ उदाहरणों से अपनी बात रखना चाहूंगा। अंतरराष्ट्रीय सम्मान जीतने वाली सारांश में अनुपम खेर ने रिटायर्ड अध्यापक का किरदार निभाया था, जो अपनी पेइंग गेस्ट की सहायता करना कर्तव्य समझता है। सत्ता के मद में डूबे राजनेता से लडाई मोल लेता है। इससे उनके उदास दिल को शांति मिलती है और उन्हें जिंदगी का मकसद मिलता है। फि ल्म डैडी, जिससे मेरी बेटी पूजा ने करियर शुरू किया था, इसमें एक सत्रह वर्षीय युवती की उन मुश्किलों को संवेदनशील तरीके से दिखाया गया था, जो अपने शराबी पिता को संभालने की जिम्मेदारी उठाती है। अनुपम खेर ने इसमें पिता का किरदार निभाया था। फिल्म इतनी असरदार थी कि आज भी ऐसे कई लोग मिल जाते हैं, जिन्होंने फिल्म देखने के बाद शराब से तौबा कर ली। कन्या भ्रूण हत्या पर बनी फिल्म तमन्ना पूजा द्वारा निर्मित पहली फिल्म थी। इसने सामाजिक समस्या पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था। 

 रमजान के महीने में मुंबई के गटर से एक हिजडा नन्ही मासूम बच्ची को उठा कर घर लाता है, उसे पालता है। जिम्मेदारी लेने का यह संदेश मेरी ज्यादातर फिल्मों की जान है। इन सभी फिल्मों को दर्शकों की अच्छी प्रतिक्रिया मिली। मतलब यह कि दर्शक, खासकर आज के युवा उन फिल्मों में उठाए गए विषयों से कोरिलेट करते हैं। एमएनसी में काम करने के साथ-साथ समाज को वापस देने की प्रवृत्ति भी उसमें है। उसे पता है कि सामाजिक जिम्मेदारी निभाना मानव प्रगति की ऊर्जा है। इसे भुलाते ही हम विफल हो जाएंगे और बिखर भी जाएंगे। बल्कि वह तो आक्रामक है। सभी कुरीतियों को जड से उखाड फेंकना चाहता है। यह अलग बात है कि उसकी जश्न मनाने की प्रवृत्ति की ओट में उसकी अच्छाइयां, समझदारी और परिपक्वता छिप जाती है।

आक्रामक हैं युवा  विद्या बालन  

आज के युवा वर्क लाइक ए कुली, लिव लाइक ए किंग में यकीन रखते हैं। वे जीतोड मेहनत कर खुद अपनी, परिवार, समाज और राष्ट्र की तरक्की में अहम भूमिका निभाना चाहते हैं। निर्भया केस हो या अन्ना आंदोलन वे अपनी समझ और होशो हवास में गुनहगारों पर बिना किसी लाग-लपेट के कार्रवाई की मांग करते हैं। वे तकनीकी विवरणों में नहीं जाते। सरल शब्दों में सीधी बात करते हैं और सीधे शब्दों में ठोस कार्रवाई की मांग करते हैं। पर साथ ही जीवन का जश्न मनाने में भी कोई कोताही नहीं बरतना चाहते। वे काम और मौज-मस्ती दोनों ही एक्स्ट्रीम लेवेल पर करते हैं। आज ऐसे ही आक्रामक युवाओं की दरकार हर देश को है, वरना कडी प्रतिस्पर्धा के दौर में वह पीछे छूट जाएगा।

इंटरव्यू : मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज, अमित, दुर्गेश और दिल्ली से इष्ट देव।  

इष्ट देव सांकृत्यायन साभार- जागरण  


समाज की बात Samaj Ki Baat 

कृष्णधर शर्मा Krishnadhar Sharma


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें