नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

गुरुवार, 10 मई 2018

विराज बहू - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

 "स्वामि-भक्ति का पाठ पढ़ाकर पुरुष ने नारी को अपने हाथ का खिलौना बना लिया। विराज भी ऐसे ही वातावरण में पली थी। उसने अपने पति को ही सर्वस्व मान लिया था। उसने स्वयं दुःख बर्दाश्त किया, परंतु पति को सुखी रखने की हर तरह से चेष्टा की। लेकिन इस सबके बदले में उसे मिला क्या? लांछना और मार। तीस दिन की भूखी-प्यासी-बुखार से चूर विराज, अपने पति नीलांबर के लिए बरसात की अंधेरी रात में भीगती हुई, चावल की भीख मांगने गई।  ...और नीलांबर ने उसके सतीत्व पर संदेह किया, उसे लांछना दी।..." ("विराज बहू" शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय)



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