नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

बुधवार, 23 सितंबर 2020

जातक कथाएं-नरेंद्र शर्मा

 "एक खरगोश नारियल के पेड़ के नीचे आराम से सो रहा था, नींद में उसे यह ख्याल आया कि यह धरती फटने वाली है, इस धरती के फटने से सब कुछ नष्ट हो जाएगा। यह हरा-भरा जंगल धरती के फटते ही नीचे पातालदेश में पहुंच जाएगा। इसके साथ ही हम सब मारे जाएंगे।  

डर के मारे खरगोश का सारा शरीर कांप उठा। उसने समझ लिया कि अब उसका आखिरी वक्त करीब आ रहा है, इसी बीच नारियल के पेड़ से दो-चार नारियल एकदम से टूटकर नीचे आ गिरे। उनके नीचे गिरते ही एक जोरदार धमाका सा हुआ जिसे सुनकर पहले से ही डरा हुआ खरगोश और डर गया। यह धमाका सुनते ही वह समझ गया कि वास्तव में ही धरती फटने लगी है...। फिर क्या था, वह पागलों की भांति पेड़ के नीचे से उठकर भागा और साथ ही चीखने लगा- बचाओ, बचाओ। मौत आ रही है, बचाओ। 

उसे देखकर जंगल के और सारे जानवर भी भागने लगे और सब चिल्लाते जा रहे थे कि भागो-भागो धरती फटने वाली है, सब जान बचाकर भागो... (जातक कथाएं-नरेंद्र शर्मा)




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शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

तेरे धोखे का क्या अंजाम होगा

 मैं तो लौट आऊंगा हर दरो-दीवार, हर जंजीर को तोड़कर

तू अपना सोच कि तेरे धोखे का क्या अंजाम होगा काफ़िर

                        कृष्णधर शर्मा 17.10.20

रविवार, 13 सितंबर 2020

छत्तीसगढ़ मित्र- छत्तीसगढ़ की प्रथम हिन्दी मासिक पत्रिका

 कोई-कोई लोग ऐसे हैं कि वे अपने मित्र के घर के भीतर बिना ही सूचना दिए चले जाते हैं और दिन भर में जितने बार उन्हें फुरसत मिलती है उतने ही बार मित्र के यहां पहुंचते हैं। ऐसे लोग घने मित्र होने पर भी अपनी कदर खो देते हैं। मित्र के घर में जाकर उसकी हर एक चीज बड़े गौर से देखना, उसकी किताबें इधर-उधर उठाना, और उसके हर एक काम में अपनी राय देने बड़प्पन के बिल्कुल विरुद्ध है। यद्यपि तुम इसका अधिकार रखते हो कि अपने मित्र के घर को अपना ही घर समझो, तो भी इससे यह सिध्द नहीं होता कि तुम अनजाने लोगों को भी अपने साथ उसके खास कमरे में ले जाओ।  

मुलाकात का सबसे अच्छा समय सवेरे के सात बजे से नौ बजे तक और शाम के चार बजे से सात बजे तक है। (छत्तीसगढ़ मित्र- छत्तीसगढ़ की प्रथम हिन्दी मासिक पत्रिका, वर्ष 2सरा अंक 6वां)




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गुरुवार, 10 सितंबर 2020

अवमानना

बंगलेनुमा आलीशान मकान में 
बेतहाशा बजते लाउडस्पीकर पर 
बज रहे हैं देशी-विदेशी गाने 
चल रहे हैं दौर पार्टी में 
एक से बढ़कर एक  पकवानों के 
परोसी जा रही हैं मेहमानों को 
मंहगी लाजवाब विदेशी शराबें 
थिरक रहे हैं मस्ती में कुछ जोड़े 
दुनिया के रंजो-गम से बेफिक्र 
मना रहे हैं सब मिलकर उत्सव
खुशियों का उपलब्धियों का 
उसी आलीशान मकान से 
कुछ सौ मीटर की दूरी पर 
सड़क के किनारे बेकार से पड़े 
पुलिया पाइप के अन्दर 
मूसलाधार बरसती हुई रात में 
भीगने से बचने की 
असफल कोशिश में 
पांच जनों का परिवार 
गीले होकर ठिठुरते और 
भूख से छटपटाते हुए 
तीन साल के बच्चे को 
रोटी न पहुंचा पाना 
लोकतंत्र की अवमानना नहीं है 
तो और क्या है माननीय!...
            कृष्णधर शर्मा 2.9.2020 

बुधवार, 9 सितंबर 2020

छत्रपति- मनु शर्मा

 "शिवाजी ज़ोर से हँस पड़े। बोले, 'सम्मान में बट्टा छिपकर आक्रमण करने से नहीं लगता, पराजित होने से लगता है। और यह तो युद्ध-नीति है कि जो जिस प्रकार लड़ना चाहे उसका उत्तर हमें वैसे ही देना चाहिए।" (छत्रपति- मनु शर्मा)



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सोमवार, 7 सितंबर 2020

पीढियां-अमृतलाल नागर

 "उन्नीसवीं सदी के आरम्भिक काल तक अन्न उत्पादन ही हमारे देश का प्रमुख कार्य था। हमारे गांवों की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी उसी पर निर्भर थी। इसके अलावा कुछ वंश-परम्परागत जातीय पेशे और कुटीर उद्योग भी यहां आ पहुंचे। इन उद्योगों के मालिक भी अधिकतर अंग्रेज ही थे। उनकी मुनाफ़ाखोर प्रवृत्ति ने भारतीय ढांचे को ही बदल दिया। 

अच्छी-अच्छी जातियों के लोगों को जो कभी अपने हाथ से हल नहीं पकड़ते थे, बढ़ती मंहगाई की मजबूरी से मिलों में मजदूरी तलाश करनी पड़ी। उन्हें चौदह से सोलह घंटे काम करना पड़ता था। सवेरे मिल का भोंपू बजते ही मिलों में चले जाते और रात में ही वापस आ पाते थे। न खाने की मोहलत, न घड़ी-पल आराम करने की। पाखाने-पेशाब की हाजत लगे तो एक लोहे का वजनी नंबर लेकर जाना पड़ता था। मजदूरों के अंग्रेजी ढंग के बाल कटे देख लेने पर मास्टर उन्हें चमड़े के पट्टों से मारता था। इसके अलावा मजदूर परिवारों की बहू-बेटियों की इज्जत पर भी तरह-तरह के अमानुषिक हमले हुआ करते थे। (पीढियां-अमृतलाल नागर)



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